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हिंसा की रीढ़ : प्रमाद
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के स्थान पर हिंसा ही होनी चाहिए ; क्योंकि प्रमार्जन से जीव भयभीत होते हैं, त्रस्त होते हैं। किन्तु तनिक गहराई से विचार कीजिए कि वहाँ (प्रमार्जन के समय) जो प्रवृत्ति होती है, वह उन जीवों की दया के लिए होती है या हिंसा के लिए ? यद्यपि साधक दया के लिये ही प्रमार्जन करता है, किन्तु उन जीवों को यह पता नहीं होता कि वास्तव में ऐसी क्रिया उनके प्रति दया के कारण ही हो रही है । मान लें, माता अपने बच्चे को ऑपरेशन करवाने के लिए डाक्टर के पास ले जाती है और ऑपरेशन होता है, तब बच्चा माता को कितनी गालियाँ देता है और रोता है। किन्तु वहाँ माता की और डाक्टर की भावना क्या है ? यद्यपि प्रत्यक्ष में बच्चा भयभीत हो रहा है और न मालूम कितने प्रकार के दुःसंकल्प अपने मन में ला रहा है, फिर भी सिद्धान्ततः तो माता और डाक्टर को पुण्य-प्रकृति का ही बंध हो रहा हैं। क्योंकि उस क्रिया के पीछे डाक्टर और माता की दया एवं विवेक की पवित्र भावना काम कर रही है।
यदि चींटियों को खेल या मनोरंजन की दृष्टि से हटाया जाता है, तब तो पापकर्म का बंध अवश्य होता है, किन्तु किसी हिंसक दुर्घटना के अवसर पर रक्षा की दृष्टि से उन्हें हटाने में पाप नहीं है। इन बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि-जो हिंसा होती है, उसके मूल में यदि अविवेक का अन्धकार है, अयतना है तो वहाँ हिसा है और पाप है। इसके विपरीत यदि विवेक का पूर्ण प्रकाश है और यतना की भी पूर्णता है तो वहाँ सच्चा धर्म है और पुण्य है।
'आरम्भिया क्रिया' छठे गुणस्थान तक रहती है, सातवें गुणस्थान में नहीं रहती, क्योंकि प्रमाद छठे गुणस्थान तक ही मर्यादित है और सातवाँ गुण-स्थान अप्रमत्त अवस्था का है। किन्तु हिंसा (द्रव्य-हिंसा) तो तेरहवें गुणस्थान तक रहती है ! फिर भी जहाँ अप्रमत्त अवस्था है, वहाँ हिंसा का पाप नहीं लगता । संक्षेप में इसका अर्थ इतना ही है कि अप्रमत्त अवस्था में और विवेकभाव में होने वाली हिंसा-पाप स्वरूप नहीं होती।
___ इसके विपरीत संसार के सकषाय तथा प्रमादी जीव चाहे हिंसा करें या न करें, किन्तु यदि उनके अन्दर यतना की वृत्ति और विवेक की ज्योति नहीं जगी, और साथ ही दूसरों की जिन्दगी को बचाने का उच्च संकल्प नहीं उठा, तो वे चाहे हिंसा करें तब भी हिंसा है, और चाहे हिंसा न करें तब भी हिंसा है । उदाहरण स्वरूप-एक धीवर सोया हुआ है और उस समय मछलियाँ नहीं पकड़ रहा है। क्या तब भी उसे 'आरंभिया क्रिया' लग रही है या नहीं ? हाँ, उसे अवश्य लग रही है, क्योंकि उसका हिंसा का संकल्प अभी समाप्त नहीं हुआ है ! वह अभी कषायभावों में ग्रसित है। फिर वह चाहे हिंसा कर रहा हो या न कर रहा हो, हिंसक ही कहलाएगा।'
६ देखिए-ओघनियुक्ति, ७५२-५३ गाथा ।
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