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________________ १६२ अहिंसा-वर्शन "भोजन करना प्रमाद की ही एक भूमिका है। प्रमाद के बिना भोजन नहीं किया जा सकता, बोला भी नहीं जा सकता और गमनागमन भी नहीं किया जा सकता । अतः जब कभी भोजनादि क्रियाएँ की जाती हैं तो आत्मा ऊंचे गुणस्थानों से नीचे उतर आता है, अप्रमाद से प्रमाद की भूमिका पर आ जाता है।" ___ मैंने उत्तर दिया कि--फिर तेरहवें गुणस्थान वाला केवली क्या करेगा ? वह क्षायिक चारित्र का गुणस्थान है और देशोनकोटिपूर्व तक उत्कृष्ट स्थिति में एक-रस रहता है, उसमें न्यूनाधिक नहीं होता है। उस गुणस्थान वाले भूख लगने पर भोजन भी करते हैं, प्यास लगने पर पानी भी पीते हैं और आवश्यकता पड़ने पर गमनागमन भी करते हैं। वे उठने और बैठने की क्रियाएँ भी करते हैं। ये समस्त क्रियाएँ वहाँ होती हैं। यदि यह मान लिया जाए कि इन क्रियाओं में प्रमाद अवश्य आ जाता है, और प्रमाद की प्रत्येक क्रिया नीचे दर्जे की भूमिका है तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि भगवान् महावीर की तेरहवें गुणस्थान की भूमिका भी ऊँची और नीची होती रहती थी। अब बतलाइए कि साधारण साधु की तुलना करने पर उनमें क्या विशेषता रह जाएगी ? हाँ, तो फिर जैन-धर्म का क्या दृष्टिकोण है ? वह क्रिया करने में कोई पुण्यपाप नहीं मानता है, बोलने आदि में पाप-पुण्य स्वीकार नहीं करता है । जैन-धर्म के मूल सिद्धान्त के अनुसार बोलने आदि के पीछे जो संकल्प है, उसी में पुण्य और पाप है । यदि उन क्रियाओं के पीछे कषाय है, तो वह पाप है; और यदि सद्बुद्धि है, तो धर्म है । यदि कोई साधक गमनागमन में विवेक रखता है और किसी प्रकार की असावधानी भी नहीं रखता है, किन्तु फिर भी हिंसा हो जाती है, तो वह हिंसा पाप-प्रकृति का बंध नहीं करती । इसी तरह यदि कोई श्रावक किसी क्रिया में यतना रखता है, किसी प्रकार भ्रमित भी नहीं होता, फिर भी कदाचित् हिंसा हो जाती है, तो वह भी पाप-प्रकृति का बंध नहीं करता । इस सम्बन्ध में भगवान महावीर ने कहा है-'जहाँ प्रमाद है, भूल है और अयतना है-वहीं पाप-कर्म है। इसके विपरीत जहाँ प्रमाद नहीं है, अविवेक नहीं है - अपितु अप्रमत्तता है, विवेक है, जागरूकता है, और यतना है-वहाँ कोई भी क्रिया क्यों न हो, वह अहिंसा है, कर्मबन्ध का हेतु नहीं है, अपितु वहाँ कर्मों की निर्जरा है। यह जैन-धर्म का सही दृष्टिकोण है। जब हम इसे ध्यान में रखते हैं तो जैनधर्म की जो आत्मा है, प्राण है-वह स्पष्टरूप से हमारे सामने झलकने लगता है। प्रमार्जन : हिंसा या अहिंसा पहले प्रश्न करते हुए कहा गया है कि-जब प्रमार्जन होता है, तब अहिंसा ८ "पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं ।" --सूत्रकृताङ्ग-सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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