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________________ हिंसा को रोढ़ : प्रमाद १६१ लिए प्रतिबन्ध भी कड़ा है। साधुओं को निर्धारित समय से अधिक एक जगह ठहरना नहीं चाहिए। उन्हें तो ग्रामानुग्राम विहार करना ही चाहिए । जब यह स्थिति हमारे समक्ष है, तो हम विचार करना चाहते हैं कि अहिंसा और हिंसा की मूलभूमि कहाँ है ? जब कोई जैन-धर्म के मर्मस्थल को स्पर्श करेगा तो एक बात ध्यान में अवश्य आएगी कि जितनी भी हरकतें होती हैं, जो भी काम किए जाते हैं या जो भी चेष्टाएँ उत्पन्न होती हैं, उन सबके मूल में हिंसा नहीं उठती है और न उनके मूल में कहीं पाप ही होता है। वे अपने आप में दोषयुक्त भी नहीं हैं। किन्तु उनके पीछे जो संकल्प हैं, भावनाएँ हैं, या कषाय हैं ; उन्हीं में हिंसा है और वही पाप भी है। अभिप्राय यही है कि जैन-धर्म के सामने जब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या खाने-पीने में भी पाप है ? तब वह उत्तर देता है कि-खाने-पीने में तो पाप नहीं है, किन्तु यह बतला दो कि उसके पीछे वृत्ति क्या है ? यदि खाने के पीछे अविवेक की भावना तो है, किन्तु कर्तव्य की भावना नहीं है; यदि तू खाना केवल खाने के लिये और स्वाद के लिए ही खाता है, और ऐसे खाने के बाद शरीर का क्या उपयोग करेगा-यह निर्णय नहीं किया है तो तेरा खाना हिंसा है। खाने के पीछे यदि विवेक है, यतना है और खाने के लिए ही नहीं खाता है; अपितु जीने के लिए खाता है और उसके पीछे खा कर सत्कर्म करने की भावना है तो ऐसा खाना धर्म है । तप धर्म है या पारणा? अब समस्या उत्पन्न होती है कि-'तप' धर्म है या 'पारणा' ? किसी ने छह मास की तपस्या की और फिर एक दिन पारणा भी किया तो पारणे के दिन धर्म होता है या पाप ? औरों को तो जाने दीजिए, भगवान् महावीर को ही लीजिए । उन्होंने छह मास तक तप किया और फिर पारणा भी किया, तो पारणा के द्वारा उनकी आत्मा ऊपर उठी या नीचे गिरी? तप-धर्म तो उन्होंने छोड़ दिया। फिर उसके पीछे क्या अभिप्राय है ? कौन-सी वृत्ति काम कर रही है ? उत्तर में यही कहना होगा कि वह आत्मा, जो तप के द्वारा ऊपर चढ़ चुकी थी, पारणे के दिन उसे तप से भी आगे बढ़ना ही चाहिए था । पारणे के बाद फिर उन्होंने तपःसाधना की और फिर पारणा किया। तब भी वे आत्म-विकास की मंजिल में आगे ही बढ़े । सारांश रूप में यही कहना पड़ेगा कि चाहे व्रत हो या पारणा, आत्मा की ऊर्ध्वगति ही होनी चाहिए । भगवान् महावीर ने जब तप किया, तब भी उनकी आत्मा ऊपर उठी और पारणा किया तब भी ऊपर ही उठी। उनकी चारित्र-आत्मा वर्द्धमान थी, हीयमान नहीं । यदि किसी भूल अथवा भ्रांति-वश इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया जाएगा तो भगवान् महावीर के चारित्र को भी हीयमान मानना पड़ेगा। प्रमाद : हिंसा का कारण ____ एक बार मालवा के एक बड़े शास्त्रीजी ने मेरे पास यह प्रश्न भेजा था कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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