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________________ १६० अहिंसा-दर्शन इस सम्बन्ध में किसी ने एक आचार्य से प्रश्न किया-जल में भी जीव हैं और स्थल पर भी जीव हैं। आकाश में भी सर्वत्र अनगिनत जीव-जन्तुओं की भरमार है । इस तरह जब सारा संसार जीवों से व्याप्त है, कहीं एक इंच भी जगह खाली नहीं है, तो भिक्षु अहिंसक कैसे रह सकता है ? ___अस्तु, जो प्रश्न आज पैदा होता है, वह पहले भी पैदा हुआ था। अभिप्राय यह है कि जब आप किसी कीड़े-मकोड़े को जाता हुआ देखते हैं और रजोहरण से प्रमार्जन करते हैं तो तनिक विचार कीजिए कि चींटियों का शरीर क्या है ? उनकी शरीराकृति बहुत छोटी-सी है । ज्यों ही आपका रजोहरण उन पर पड़ता है, वे भयभीत हो जाती हैं। अपने दुःख की कल्पना वे स्वयं ही कर सकती हैं। कदाचित् आप तो यही कह सकते हैं-कौन बड़ा बोझा उनके ऊपर पड़ गया ? परन्तु जब उनके ऊपर रजोहरण पड़ता है तो उन्हें ऐसा मालूम होता है जैसे उन पर कोई पहाड़ टूट पड़ा हो । निस्सन्देह वे त्रस्त हो जाती हैं और जब घसीटते-घसीटते आप उन्हें दूर तक ले जाते हैं, तो उन कोमल शरीर वाली बेचारी चींटियों को ऐसा लगता है, मानो अब जिन्दगी का अन्तिम क्षण आ पहुंचा हो। इस सम्बन्ध में शास्त्रकार भी कहते हैं—पृथ्वी पर रगड़ा हो या छूआ हो, अथवा एक-दूसरे पर डाला गया हो, तो यह सब हिंसा के ही विभिन्न रूप हैं । अहिंसा की भूमिका ___ अब प्रश्न उपस्थित होता है कि यह सब क्या है ? अहिंसा की भूमिका को हम किस प्रकार अपने जीवन में तय कर सकते हैं ? शुद्ध अहिंसक बनने के लिए कहीं यह तो अनिवार्य नहीं है कि इधर 'करेमि भंते' और 'अप्पाणं वोसिरामि' बोलें और उधर जहर की पुड़िया खा कर संसार से ही विदा हो जाएँ ? आखिर सर्वथा निश्चल कैसे रहा जा सकता है ? जब आत्मा संसार में रहता है और जीवन-व्यापार चलाना भी अनिवार्य है तो फिर पूरी तरह निष्क्रिय हो कर किस प्रकार मुर्दो की तरह पड़ा रहा जा सकता है ? भगवान् महावीर छह मास तक हिमालय की चट्टान की तरह अचल खड़े रहे, किन्तु उसके बाद वे भी पारणा के लिए गए और हरकत शुरू हो गई। महीना, दो महीना और अधिक से अधिक छह महीना कायोत्सर्ग में बिताये जा सकते हैं, किन्तु फिर भी जीवन तो जीवन ही है । उसमें गमन-आगमन किए बिना जीवन का व्यापार चल नहीं सकता। फिर साधुओं पर तो एक जगह अनिश्चित समय तक ठहरने के ६ जले जन्तुः स्थले जन्तुराकाशे जन्तुरेव च । जन्तुमालाकुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसकः ? ।। -तत्त्वार्थ राजवार्तिक ७, १३ ७ “संघाइया संघट्टिया" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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