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हिंसा की रीढ़ : प्रमाद
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रख देना भी हिंसा है, और क्षणिक मनोरंजन के लिए किसी जीव को धूल से ढंक देना भी हिंसा है। यदि जीव आ-जा रहे हैं और स्वतन्त्ररूप से विचरण कर रहे हैं तो उनकी स्वतन्त्रता में रुकावट डालना भी हिंसा है। यहाँ तक कि किसी जीव को अकारण छू लेना भी हिंसा है। यह सब मर्यादाएँ सुप्रसिद्ध 'इरियावहिया' के पाठ में आ जाती हैं। स्वतन्त्रता में बाधा नहीं
___ जैन-धर्म तो यही कहता है कि किसी भी प्राणी की स्वतन्त्रता में तुम बाधक मत बनो । उसके जीवन की जो भी भूमिका है, उसी के अनुसार वह क्रियाशील हो रहा है। यदि तुमने उसका रास्ता रोक दिया अथवा उसे छू दिया तो तुम हिंसा के भागी हो गए। इस रूप में अहिंसा-धर्म की सूक्ष्म व्याख्या सुनने को अन्यत्र नहीं मिलती।
अहिंसा-धर्म की इन बारीकियों को देख कर साधारण जनता सहसा आश्चर्यचकित हो जाती है । क्योंकि मनुष्य अपनी जिन्दगी में हरकत तो करता ही है, वह आता भी है और जाता भी है । इस तरह कहीं न कहीं, और किसी न किसी जीव के गन्तव्य मार्ग में रुकावट आ ही जाती है। किसी न किसी को पीड़ा पहुंचे बिना नहीं रहती फलतः वह जीव भयभीत हो ही जाता है । ऐसी स्थिति में स्वभावतः यह प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि आखिर किस प्रकार कोई व्यक्ति अहिंसक रह सकता है ? यह प्रश्न सभी व्यक्तियों के समक्ष समानरूप से उपस्थित होता है। आखिर साधु से भी किसी प्राणी को पीड़ा पहुँच सकती है। यदि साधु के जल से भरे पात्र में मक्खी गिर जाती है ; उसे निकालने के लिए पहले तो छूना ही पड़ता है और तब वह निकाली जाती है। .
मान लें, एक प्राणी धूप में पड़ा है। अपंग होने के कारण वह इधर-उधर नहीं जा सकता। वह धूप का मारा तिलमिला रहा है और मौत के मुंह में जाने की तैयारी कर रहा है। कोई दूसरा व्यक्ति अपना उदारतावश उसे उठा कर एक जगह से दूसरी जगह रख देता है। निस्सन्देह उठाने वाले ने सोच-समझ कर ही और दया से प्रेरित हो कर ऐसा किया है, किन्तु कोई उससे कहता है कि 'जीव को एक जगह से दूसरी जगह रख देना भी हिंसा है। इस प्रकार जब किसी जीव की गति में बाधा पहुँचाना; और यहाँ तक कि उसे छूना भी हिंसा है, तो कोई प्रमार्जन-क्रिया कैसे कर सकते हैं ?
यदि इसी दृष्टि से विचार किया जाएगा, तो कहीं पैर रखने को भी जगह न मिलेगी। जीवन-व्यापार का संचालन करना भी हिंसा के बिना सम्भव नहीं है। आखिर श्वास की हवा से भी तो सूक्ष्म जन्तुओं की स्वतन्त्र गति में बाधा पड़ती है।
५ ठाणाओ ठाणं संकामिआ । Jain Education International
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