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________________ १८४ अहिंसा-दर्शन और गृहस्थों की स्थिति का ध्यान रखना चाहिए ।२ असमय में भिक्षा के लिए जाने से गृहस्थों को अप्रीति होगी, उनके चित्त में क्षोभ और तिरस्कार जागृत होगा और स्वयं को भोजन न मिलने पर साधु के मन में भी गांव वालों के प्रति तिरस्कार का भाव उत्पन्न होगा। इस प्रकार दोनों ओर के संकल्पों में गड़बड़ी हो जाएगी। अतएव विचारधारा से यह नया विधान प्रसारित किया गया कि जिस गांव में भोजन का जो निश्चित-सा समय हो, वही भिक्षा का समय भी निश्चित कर लिया जाए। यह एक युगान्तरकारी परिवर्तन था । उक्त उदाहरणों की परछाईं में हम देखते हैं कि धर्म के बाह्यरूपों में तीर्थंकरों के युग से ले कर आचार्यों के युग तक लगातार परिवर्तन होते रहे हैं। अन्तरंग धर्म __ धर्म का अन्तरंग रूप उसके बहिरंग रूप से सर्वथा भिन्न होता है । उसमें कभी कुछ भी बदलने वाला नहीं है । वह अनन्त-अनन्त काल तक ज्यों का त्यों स्थायी रहने वाला है । वह जैसा वर्तमान में है, वैसा ही भूतकाल में भी था और भविष्य में भी ऐसा ही रहेगा । चाहे कितने ही तीर्थंकर आएँ और परिवर्तनकारी प्रेरणा भी प्रसारित क्यों न करें, किन्तु अन्तरंग में अंशमात्र भी परिवर्तन होने वाला नहीं है। प्रतिवर्ष पतझड़ की ऋतु में वृक्षों के फल, फूल तथा पत्ते सब चले जाते हैं, किन्तु पतझड़ के बाद वह फिर नवीन कोपलों से सुहावना दिखाई देने लगता है । फिर उसमें फूल-फल लगते हैं, वह हरा-भरा और मनोरम हो जाता है। कुछ समय बाद फिर पतझड़ की ऋतु आती है और वह वृक्ष फिर लूंठ-सा दिखाई देने लगता है। इससे स्पष्ट है कि वृक्ष बाहर में अपना रूप अवश्य बदलता रहता है, परन्तु अपने मूल रूप को नहीं बदलता। यदि वृक्ष का मूल रूप ही बदल जाए तो फिर फूलों, फलों और पत्तों के लिए वहाँ गुंजाइश कहाँ रहे ? उपर्युक्त कथन से इस सिद्धान्त की पुष्टि होती है कि प्रत्येक सत्य का एक स्थायी रूप होता है और शेष बदलता हुआ रूप । यदि सर्वदा स्थायी रहने वाला कुछ भी रूप न हो तो परिवर्तन होने वाला-बदलने वाला रूप किसके सहारे टिकेगा ? क्या वह आधार-शून्य नहीं हो जाएगा ? __ इस प्रकार व्यावहारिक रूप में धर्म बदलता रहता है-उसे देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप तीर्थंकर बदल देते हैं और आगे होने वाले आचार्य भी द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव के अनुसार उसमें यथासमय परिवर्तन ला देते हैं। किन्तु अन्तरंग धर्म कभी नहीं बदलता । वह सदैव एक-सा रहता है । २ अकालं च विवज्जित्ता, काले कालं समायरे । -दशवकालिक सूत्र ५, २, ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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