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हिंसा को रीढ़ : प्रमाद
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अहिंसा-धर्म अन्तरंग धर्म है । वह निश्चय धर्म है। अहिंसा अपने आप में बदलने वाली सांसारिक वस्तु नहीं है । वह तो एक त्रिकाल स्थायी, सत्य एवं शाश्वत धर्म है । वह तो अनादि काल से चला आ रहा है, आज भी चल रहा है और अपनी सुनिश्चित गति से आगे भी चलता रहेगा।
जैन-धर्म के अनुसार आत्मा कभी नहीं बदलती। शरीर अवश्य बदलता है; किन्तु आत्मा उसी रूप में स्थिर रहती है। वह किसी भी परिस्थिति में बदल नहीं सकती। अनन्त-अनन्त काल संसार में रहने के बाद भी आत्मा नहीं बदलती। यहाँ तक कि जब मोक्ष में जाना होता है, तब भी आत्मा का रूप वही होता है, जो पहले था। आत्मा तो सदा आत्मा ही रहेगी, वह कदापि अनात्मा नहीं हो सकती। हाँ, इस पंचभौतिक शरीर को किसी दिन ग्रहण किया जाता है, तो किसी दिन छोड़ भी दिया जाता है । इस प्रकार यह परम्परा सदैव जारी रहती है।
अहिंसा जैन-धर्म की आत्मा है । उसके मूल रूप में किसी भी समय और किसी भी परिस्थितिवश किसी भी प्रकार का परिवर्तन सम्भव नहीं हो सकता। अतः जैन-धर्म को समझने के लिए पहले अहिंसा को भली-भांति समझना चाहिए और अहिंसा को भली-भाँति समझने के लिए जैन-धर्म को सही दृष्टिकोण से देखना चाहिए। ये दोनों, मानों एक रूप हो गये हैं। इन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।
जब जैन-धर्म का प्रसंग आता है तो अहिंसा तुरन्त याद आ जाती है। इसी प्रकार जब अहिंसा का प्रसंग छिड़ता है तो तुरन्त जैन-धर्म की याद जाती है । अस्तु, हम जैन-धर्म के साथ ही अहिंसा का भी स्मरण किया करते हैं। इस प्रयोजन में अकेले हम ही नहीं, अपितु हमारे अजैन साथी भी जब किसी प्रसंगवश अहिंसा को याद करते हैं, तो साथ-साथ जैन-धर्म को भी याद कर लेते हैं।
परन्तु अहिंसा-तत्त्व वास्तव में इतना सूक्ष्म है कि उसको ठीक-ठीक समझने में भूल और भ्रांतियाँ भी हो सकती हैं, क्योंकि सामान्य बुद्धि के लोग तो उसके स्थूलरूप को ही पकड़ लेते हैं। उसका सूक्ष्मरूप उनकी बुद्धि की पकड़ में नहीं आता ! अतएव अहिंसा के सम्बन्ध में तीर्थंकरों ने या आचार्यों ने क्या स्पष्टीकरण किया है ? अहिंसा के कितने विभाग किये गए हैं ? इत्यादि विषयों पर गहराई से विचार करने से ही अहिंसा का ठीक विचार हो सकता है।
___अहिंसा के भेदों को समझने के लिए, पहले हिंसा के भेदों को समझना पड़ेगा। आखिर अहिंसा का निषेधरूप अर्थ है- हिंसा का न होना। अत: अब यह मालूम
३ आत्मा का परिवर्तन आत्म-रूप में ही होता है, जड़रूप में नहीं। यहाँ आत्मा
के न बदलने का अर्थ है-आत्मा का आत्मत्वरूप से कभी नाश नहीं होता । वह सदा अखण्ड एवं अभेद्य रहती है ।
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