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________________ हिंसा को रीढ़ : प्रमाद १८३ किए; जैसे-राजपिण्ड न लेना और एक ही स्थान पर निर्धारित अवधि से अधिक न रहना, आदि । भगवान् महावीर के युग में साधुओं के लिए पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे प्रहर का कार्यक्रम अलग-अलग बतलाया गया है । साधु की दिनचर्या चार प्रहरों में बांट दी गई थी। पहले प्रहर में स्वाध्याय करना; अर्थात्-पहला प्रहर सूत्र-स्वाध्याय में व्यतीत करना । दूसरा प्रहर उसके अर्थ का चिन्तन करने में, ध्यान में, तर्क-वितर्क में एवं जीवन के सूक्ष्म रहस्यों को स्पष्ट रूप से सुलझाने में गुजारना। इसी कारण पहला प्रहर 'सूत्र-पौरुषी' और दूसरा प्रहर 'अर्थ-पौरुषी' कहलाता था। यह दोनों सांकेतिक शब्द हैं, जिन्हें दुर्भाग्य से आज बिलकुल ही भुला दिया है और निष्कासित-सा कर दिया है । अतः इस शब्दावली का एक दिन जो बहुमूल्य महत्त्व था, वह हमारे ध्यान से निकल गया है। तीसरे प्रहर में साधु को भिक्षा के लिए जाने का विधान था। इस विधान के अनुसार यह सैद्धान्तिक भाव था कि जब साधु गृहस्थ के घर जाए, तो ऐसी स्थिति में जाए कि घर के सब लोग भोजन करके निवृत्त हो चुके हों । स्त्री, बच्चे और बूढ़े सभी खा-पी चुके हों, बचा हुआ भोजन अलग रख दिया गया हो जिसकी आवश्यकता न रह गई हो । ऐसे समय पर साधु भिक्षा के लिए जाए और उस बचे हुए भोजन में से अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए थोड़ा-सा ले आए। जिस समय गृहस्थ के यहाँ भोजन बन रहा हो या घर के लोग खा-पी रहे हों, उस समय साधु भिक्षा के लिए नहीं जाया करते थे। क्योंकि उस समय जा कर यदि साधु भिक्षा ले आता है तो सम्भव है कि घर वालों के लिए भोजन कम पड़ जाए और फिर दुबारा बनाने की अनावश्यक परेशानी उठानी पड़े। __ भगवान् महावीर के पश्चात् कुछ काल तक यह विधान चला। उसके बाद आचार्य शय्यम्भव के युग में नया परिवर्तन हुआ। तीसरे प्रहर की भिक्षा का नियम सिमटने लगा, लोगों का रहन-सहन भी बदला । प्रत्येक गृहस्थ के यहाँ तीसरे प्रहर तक भोजन पाने की स्थिति प्रायः नहीं देखी जाने लगी, अतः उस समय साधु के जाने पर भिक्षा देने वाले और लेने वाले दोनों को ही असुविधा होना स्वाभाविक हो गया । साधुओं से प्रायः गृहस्थ यही कहते थे-भोजन के समय पर तो आप आते नहीं, और समय बीत जाने पर आ कर व्यर्थ ही हमें लज्जित करते हैं ! यह भी कोई गोचरी है ? जब इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न हो गई तो आवश्यकता ने आचार्यों को नया विधान बनाने की प्रगतिशील प्रेरणा दी, जिसके अनुसार नियम बना कि साधुओं को गाँव की प्रथा के अनुसार भोजन के ठीक समय पर ही भिक्षा के लिए निकलना चाहिए १ पढम पोरिसि सज्झायं, बीयं झाणं झियायई । तइयाए भिक्खायरियं, पुणो चउत्थीइ सज्झायं ॥ -उत्तराध्ययन, २६।१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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