SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंसा की रीढ़ : प्रमाद धर्म के दो रूप होते हैं-बाह्य; अर्थात् बहिरंग रूप, और आभ्यन्तर; अर्थात्अन्तरंग रूप । बहिरंग रूप का अर्थ होता है--क्रियाकाण्ड, बाहर के आचार-विचार, रहन-सहन और जीवन में जो कुछ भी बाह्यरूप से करते हैं, वे सब काम । अन्तरंग रूप का अर्थ है-वह भावना या विचार, जिससे बाह्य आचार-विचार प्रेरित होता है। कोई भी साधक अपने आप में किस प्रकार की पवित्र भावनाएँ रखता है, किन उच्च विचारों से प्रेरित और प्रभावित होता है, उसमें जीवन की पवित्रता कितनी है, उसके अन्तरतर में धर्म का कितना उल्लास है, वहाँ दया और करुणा की लहरें कितनी उठ रही हैं ? यह सब भीतर का रूप ही धर्म का अन्तरंग कहलाता है। जब यह अन्तरंग दृष्टिकोण विशुद्ध एवं वास्तविकतावादी बन जाता है, अर्थात् दूसरों के संसर्ग या सम्पर्क से उत्पन्न होने वाली विकृति या विभाव से परे हो कर आत्मा जब सर्वथा शुद्ध एवं स्वाभाविक परिणति की पवित्र भूमिका में पहुँच जाता है, तब यह धर्म कहलाता है। बाह्य धर्म-परिवर्तनशील ___ बाह्य-धर्म को व्यावहारिक धर्म भी कहते हैं। इसके सम्बन्ध में जैन-धर्म की यह धारणा है कि वह प्रायः बदलता रहता है, स्थायी नहीं रहता। प्रत्येक तीर्थंकर अपने-अपने युग में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार जीवन के बाह्य नियमों में परिवर्तन करते रहते हैं। प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के युग में जैन साधुओं का रहन-सहन कुछ और रूप में था, और बाईस तीर्थंकरों के समय में ऋमिक परिवर्तन के फलस्वरूप दूसरे रूपों में प्रकट हुआ। फिर भगवान् महावीर आये। उन्होंने देश, काल तथा साधकों की बदली हुई वास्तविक स्थिति को सामने रख कर अपने पूर्ववर्ती भगवान् पार्श्वनाथ आदि द्वारा प्रचलित नियमों में अनेक परिवर्तन किये, जिनमें से कुछ हमें आज भी शास्त्रों में पढ़ने को मिलते हैं । जैसे भगवान् महावीर ने वस्त्रों के सम्बन्ध में यह प्रतिबन्ध लगाया कि साधुओं को सफेद रंग का ही वस्त्र पहनना चाहिए और वे भी अल्प मूल्य वाले ही हों, बहुमूल्य नहीं । जबकि उनसे पहले यह सैद्धान्तिक प्रतिबंध नहीं था । भगवान् पार्श्वनाथ के युग में जैन-साधु किसी भी रंग के एवं बहुमूल्य वस्त्र पहन सकते थे । भगवान् महावीर ने इस दिशा में न केवल वेष-भूषा के विषय में, बल्कि आहार और विहार के सम्बन्ध में भी अनेक प्रगतिशील एवं उपयोगी परिवर्तन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy