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________________ अहिंसा के संदर्भ में धर्मयुद्ध का आदर्श १७१ असंख्य सूक्ष्मकीटाणु हैं, जो शास्त्रोक्त वायुकायिक जीवों के अतिरिक्त हैं, शरीर से लगते हर झोंके के साथ उनका सर्वनाश होता रहता है। हर साँस में प्राणी मर रहे हैं । व्यक्ति के अपने शरीर में भी मांस, मज्जा, रक्त, मलमूत्र आदि में भी प्रतिक्षण असंख्य प्राणी जन्मते-मरते रहते हैं । प्रश्न है, इस स्थिति में हिंसा से कैसे बचा जा सकता है ? अहिंसा का पालन कैसे हो सकता है ? जैनपरम्परा इसका उत्तर द्रव्य और भाव के द्वारा देती है। यदि साधक जाग्रत है, उसके मन में अहिंसा का विवेक-बोध है, हिंसा की वृत्ति या संकल्प नहीं है, तो वह बाहर में हिंसा होने पर भी अन्दर में अहिंसक ही है। यह भावशून्य द्रव्यहिंसा केवल बाह्य व्यवहार में कथनमात्र की हिंसा है, पापकर्म का बन्ध करने वाली हिंसा नहीं है । इस प्रकार हिंसा की भावना से मुक्त मनःस्थिति में द्रव्यहिंसा होने पर भी अहिंसाधर्म का परिपालन अक्षुण्ण है। अहिंसाधर्म के परिपालन का एक दूसरा रूप और है । वह प्रवृत्ति में हिंसा और अहिंसा की मात्रा के आधार पर है । कल्पना कीजिए, कोई एक प्रवृत्ति है, जिसमें हिंसा की मात्रा कम है, किन्तु अहिंसा का भाग अधिक है, तो वह भी अहिंसा की साधना के क्षेत्र में आ जाती है । हिंसा और अहिंसा का केवल वर्तमान पक्ष ही नहीं, भविष्य पक्ष भी देखना आवश्यक है । यदि वर्तमान में हिंसा होती है, किन्तु उसके द्वारा भविष्य में अहिंसा की विपुल मात्रा परिलक्षित होती है, तो वह वर्तमान की हिंसा भी अहिंसा की साधक हो जाती है। इसके विपरीत यदि वर्तमान में अहिंसा अल्पमात्रा में है, किन्तु भविष्य में उससे प्रचुरमात्रा में हिंसा फूट पड़ने की स्थिति है, तो वह वर्तमान की क्षुद्र अहिंसा अहिंसा के साधनाक्षेत्र में नहीं आती है । अहिंसा का सही रूप गहराई से विचार करने पर हम देखते हैं कि हिंसा के दो रूप चल रहे होते हैं। एक लम्बी खूखार हिंसा होती है और दूसरी, उस निर्दय एवं क्रूर हिंसा को रोकने के लिए एक छोटी हिंसा होती है । यहाँ यही विचारणीय है कि क्या हम दोनों को एक समान हिंसा कह सकते हैं ? नहीं ! स्पष्ट है कि एक लम्बी हिंसा अर्थात् एक बहुत बड़ी हिंसा को रोकने के लिए जो एक छोटी हिंसा होती है-भले ही इसमें प्रत्यक्षतः प्रचण्डहिंसा क्यों न होती हो-वह हिंसा की एकान्त श्रेणी में नहीं आ सकती । कल्पना कीजिए, शरीर में एक जहरीला फोड़ा हो गया है । उस फोड़े को साफ करना है। यदि उसे साफ नहीं किया जाता है तो सारा शरीर ही बर्बाद हो जाता है । एक अंगुली के जहर को निकाल कर पूरे शरीर को बचाना होता है । इसके लिए जरूरी होने पर उस विषदिग्ध अंगुली को काट कर शरीर से अलग भी कर दिया जाता है और पूरे शरीर को समाप्त होने से बचा लिया जाता है । अभिप्राय यह है कि एक छोटे अंग का विष, जो पूरे शरीर में फैल कर जीवन को ही नष्ट करने वाला हो, तो उस समय एक हाथ, एक पैर या एक अंगुली को काटे जाने का मोह नहीं किया जाता। यह नहीं सोचा जाता कि उसे काटा जाए या नहीं काटा जाए । स्पष्ट है, सारे शरीर को बचाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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