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________________ अहिंसा के संदर्भ में धर्मयुद्ध का आदर्श | १६ युद्ध होते हैं, किन्तु युद्ध का अर्थ यह नहीं कि सभी युद्ध एक-जैसे ही होते हैं । एक तो युद्ध वह होता है, जो धर्म के लिए लड़ा जाता है, इसे धर्मयुद्ध कहते हैं, दूसरा अधर्म के लिए लड़ा जाता है, जिसे अधर्मयुद्ध कहा जाता है। धर्मयुद्ध वास्तव में हिंसा का उतना नहीं, जितना कि अहिंसा का अंग है । बंगला देश की शरणागतरक्षा हेतु भारत जो युद्ध लड़ रहा है, यह धर्मयुद्ध ही है। इस सामयिक समस्या पर श्रद्धेय कविश्रीजी का ६-१२-७१ को दिया गया युक्ति-युक्त प्रवचन -सम्पादक] ___ अहिंसा और हिंसा की विवेचना बहुत पूर्वकाल से होती आ रही है। अब तक जितने भी मनीषी-विचारक हुए हैं, सभी ने इस पर बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया है, किन्तु फिर भी बहुत बार लोग गड़बड़ा जाते हैं कि वास्तव में अहिंसा और हिंसा का सही रूप क्या है ? मोटे तौर पर द्रव्यहिंसा और भावहिंसा के दो रूपों में विभाजित करके हिंसा की विवेचना की जाती है । किन्तु हिंसा के वास्तव में चार रूप हैं-(१) द्रव्य-हिंसा-इसमें सिर्फ बाहर में हिंसा होती है, (२) भावहिंसा- इसमें भावनामात्र से हिंसा होती है, (३) द्रव्य-भावहिंसा-इसमें द्रव्य और भाव-दोनों प्रकार की हिंसा होती है, यह हिंसा का प्रचण्डरूप है । और (४) न द्रव्य+न भाव हिंसा- इसमें न अन्दर में हिंसा होती है, न बाहर में । और यह हिंसा का शून्य भंग अर्थात् प्रकार है ! अतः यह चतुर्थरूप वस्तुत: अहिंसा ही है । जैनदर्शन में अहिंसा का बोलबाला है । इसमें अहिंसा सर्वोच्च शिखर के रूप में दीप्तिमान है । जैनसाधना में इसका बड़ा विशद महत्त्व है। जैनधर्म-साधना का कण-कण अहिंसा से अनुप्राणित है । शास्त्र के शास्त्र इस पर लिखे गये हैं। "पुरुषार्थसिद्ध युपाय" एक ऐसा ही ग्रन्थ है, जिसमें हिंसा और अहिंसा का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। आचार्य हरिभद्र और आचार्य हेमचन्द्र, शुभचन्द्र आदि की रचनाओं में भी हिंसा और अहिंसा की गम्भीर विवेचना उपलब्ध है। किन्तु विचारणीय बात यह है कि जब तक जीवन है, तब तक इसमें हिंसा तो रहती ही है । हिंसा का क्रम निरंतर चलता ही रहता है । चलने-फिरने में हिंसा है, खाने-पीने में हिंसा है । धरती पर असंख्य कीटाणु फिरते हैं, जिन्हें माइक्रो-स्कोप से स्पष्ट देखा जा सकता है, कदम रखते ही उनका संहार हो जाता है। हवा में भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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