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________________ १६६ - अहिंसा-दर्शन ... जब किसी को मारने में मन का दुःसंकल्प जुड़ता है, रागद्वेष की भावना प्रेरक बनती है, तब हिंसा होती है । भले ही किसी के प्राण नहीं छूटें। किन्तु हमारा मन रागद्वेष के संकल्प से दूषित हो गया, तब भी हम हिंसक हो गए। उक्त कथन का भावार्थ यह है कि हिंसा का मूलाधार कषायभाव है। अतः जो साधक कषायमाव में न हो, फिर भी यदि उसके शरीर से हिंसा हो जाती है तो वह केवल द्रव्य-हिंसा है, भाव-हिंसा नहीं। द्रव्य-हिंसा, प्राण-नाशस्वरूप होते हुए भी हिंसा नहीं मानी जाती । केवलज्ञानी की यही स्थिति है । वे राग-द्वेष की स्थिति से सर्वथा अलग हैं । उनके अन्दर किसी भी प्राणी के प्रति दुर्भाव नहीं है, अपितु सर्वांगीण सद्भाव है । अतः उनके शरीरादि से होने वाली हिंसा, हिसा नहीं है। केवली स्वभावतः हिंसा करते नहीं हैं, अपितु वह हो जाती है । इसीलिए उन्हें बाहर में हिंसा होते हुए भी एकमात्र साता-वेदनीय का बंध होता है । शाब्दिक दृष्टिकोण से यहाँ पर दो प्रकार के शब्दों के प्रयोग देखे जा रहे हैं-'वे हिंसा करते नहीं, वह अपने आप हो जाती है। दूसरे प्रकार से इसे यों भी कह सकते हैं कि केवली जीवों को मारते नहीं, वे अपने आप मर जाते हैं। इन दोनों प्रयोगों में कितना बड़ा अन्तर है ? यतनापूर्वक गमन से हिंसा का पाप-बन्धन नहीं एक साधु विवेकपूर्वक भिक्षा के लिए जाता है या कोई गृहस्थ विवेकपूर्वक गमनक्रिया करता है। उस समय उसके अंतस् में किसी भी जीव को मारने की वृत्ति नहीं है, फिर भी यदि मर जाते हैं, तो यही कहा जायगा कि वह जीवों को मारता नहीं है, किन्तु जीव मर जाते हैं । इस प्रकार के मर जाने में पाप-बंध नहीं है, किन्तु मारने में पाप-बंध है । इस सम्बन्ध में आचार्य भद्रबाहु भी कहते हैं-'ईर्यासमिति से युक्त हो कर कोई साधक चलने के लिए पाँव उठाए और अचानक यदि कोई जीव उसके नीचे आ कर, दब कर मर जाए, तो उस साधक को उसकी मृत्यु के निमित्त से तनिक-सा भी बंध होना शास्त्र में नहीं बताया गया है। क्योंकि वह साधक गमनक्रिया में पूर्ण रूप से उपयोग रखने के कारण निष्पाप है।"१° यही बात दिगम्बरपरम्परा के आचार्य वट्टकेर ने भी उद्घोषित की है-- ६ यदा प्रमत्तयोगो नास्ति, केवल प्राणव्यपरोपणमेव, न तदा हिंसा । उक्त चवियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते ।' __तत्त्वार्थराजवार्तिक ७, १३ १० उच्चालिअम्मि पाए इरियासमिअस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी मरेज्ज तं जोगमासज्ज ॥७४८।। .. न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुहुमो वि देसिओ समए । .. अणवज्जो उवओगेणं, सव्वभावेण सो जम्हा ॥७४६॥ -ओघनियुक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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