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द्रव्यहिंसा-भावहिंसा
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'कमलिनी का पत्ता जल में ही उत्पन्न होता है और जल में ही उसका पोषण और विकास भी होता है, फिर भी वह जल से लिप्त नहीं होता, क्योंकि वह स्नेहगुण से युक्त है। इसी प्रकार समितियुक्त साधु जीवों के मध्य में विचरण करता हुआ भी पाप से लिप्त नहीं होता, क्योंकि उसके अन्तःकरण में करुणा का अखण्डस्रोत प्रवाहित है ।" ११
एक और सुन्दर उपमा के साथ आचार्य फिर इसी बात को स्पष्ट करते हैं---'घोर संग्राम छिड़ा हुआ है। योद्धागण एक-दूसरे पर प्रखर बाणों की जलधारवत् वर्षा कर रहे हैं । परन्तु जिसने अपने वक्षस्थल को मजबूत कवच से ढंक रखा है, उसे क्या वे बाण घायल कर सकते हैं ! कदापि नहीं। इसी प्रकार जो मुनि ईर्यासमिति के सुदृढ़ कवच से युक्त है, वह जीवों के समुदाय में निरन्तर विचरता हुआ भी पाप से लिप्त नहीं हो सकता ।"१२
यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने से नवीन पाप-कर्म का स्पर्श भी नहीं होता। इतना ही नहीं, अपितु पहले बँधे हुए कर्मों का क्षय भी होता है। वही आचार्य कहते हैं-"जो मुनि यतना के साथ चल रहा है, जिसके चित्त में प्राणीमात्र के प्रति दया की भावना विद्यमान है, वह चलता हुआ भी नवीन कर्मों का बंध नहीं करता। इतना ही नहीं, अपितु वह पहले बंधे हुए कर्मों की निर्जरा भी करता है ।" १3
___ आचार्यशिरोमणि भद्रबाहु का भी ओघनियुक्ति में ऐसा ही कथन है'गीतार्थ साधक के द्वारा यतनाशील रहते हुए भी यदि कभी हिंसा हो जाती है तो वह पाप-कर्म के बंध का कारण न हो कर निर्जरा का कारण होती है। क्योंकि बाहर में हिंसा होते हुए भी यतनाशील के अन्तर में भाव-विशुद्धि रहती है। फलतः वह कर्मनिर्जरा का फल अर्पण करती है ।"१४
११ पउमिणि-पत्तं व जहा, उदएण ण लिप्पदि सिणेहगुणजुत्तं । तह वद-समिदीहिं ण लिप्पदि, साहू काएसु इरियंतो ॥
-मूलाचार, पंचाचाराधिकार १२ सर-वासेहिं पडतेहिं जह दिढकवचो ण भिज्जदि सरेहिं ।
तह समिदीहिं ण लिप्पइ, साहू काएसु इरियंतो ।। १३ तम्हा चेट्टिदुकामो, जइया तइया भवाहि तं समिदो। समिदो हु अण्णं ण दियदि, खवेदि पोराणयं कम्मं ॥
-पंचाचाराधिकार जदं तु चरमाणस्स दयापेहुस्स भिक्खणो । णवं ण बज्झदे कम्म पोराणं च विधूयदि ॥
-समयसाराधिकार १४ जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स,
सा होइ निज्जर-फला, अज्झत्थ-विसोहि-जुत्तस्स ।।७५६॥
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