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________________ द्रव्यहिंसा-भावहिंसा १६५ ज्ञानियों से भी काययोग की चंचलता के कारण कभी-कभी पंचेन्द्रिय जीवों तक की हिंसा हो जाती है । केवलज्ञानी विहार कर रहे हैं और बीच में कहीं नदी आ जाए तो क्या करेंगे? उत्तर स्पष्ट है, वे नाव में बैठेगे । यदि नदी में पानी थोड़ा है तो विधि के अनुसार पैदल भी जल में से पार होंगे । वे चाहे नाव में बैठ कर चलें या पानी में उतर कर, परन्तु हिंसा से बचाव सर्वथा असम्भव है ! नाव और पानी की तो बात क्या, एक कदम रखने में जो हरकत होती है, उसमें भी हिंसा हो जाती है । इस संदर्भ में कर्म-बन्ध की बात भी आ जाती है । तेरहवें गुणस्थान वाले केवलियों को कौन-सी कर्म-प्रकृति का बंध होता है ? उक्त नदी-संतरण, आदि कार्य करते हुए भी वे सातावेदनीय का ही बंध करते हैं । यह कैसी बात हुई ? जीवन के द्वारा होती तो है हिंसा, किन्तु बंध होता है सातावेदनीय का ! जिन जीवों की हिंसा हुई है, वे साता में मरे हैं या असाता में ? वे कुचले गये हैं, चोट पहुँचने पर मरे हैं, अपने आप नहीं मर गये हैं । फिर भी आगम कहते हैं कि इस स्थिति में बंध होता है-सिर्फ पुण्यप्रकृति का ही, पापप्रकृति का नहीं । इस जटिल समस्या पर विचार करने की आवश्यकता है। कषायभाव : हिंसा का मूलाधार वास्तव में हिंसा कषायभाव में है। इस सम्बन्ध में कहा भी गया है :किसी के द्वारा किसी जीव का मर जाना अपने आप में हिंसा नहीं है, अपितु क्रोधभाव से, मानभाव से, मायाभाव से या लोममाव से किसी जीव के प्राणों को नष्ट करना, हिंसा है। मतलब यह है कि क्रोध, मान, माया, लोम, घृणा द्वेष आदि दुर्भाव यदि मन में हों और मारने की दुर्वृत्ति के साथ जीवों को मारा जाता हो या सताया जाता हो, तो वहाँ हिंसा होती है । प्रमादपूर्वक, रागद्वेष की वृत्ति से किसी के प्राणों का नाश हिंसा है। किसी को मारना ही हिंसा की व्याख्या नहीं है । ६ अणगारस्स भंते । भावियप्पणो पुरओ जुगमायाए पेहाए रीयं रीयमाणस्स पायस्स अहे कुक्कुडपोए वा कुलिंगच्छाए वा परियावज्जिज्जा; ७ तस्स णं ! इरियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! अणगारस्स णं भावियप्पणो जाव तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइआ कज्जइ । -श्री भगवती-सूत्र, श० १८, उ०८ ८ 'प्रमत्तयोगात् प्राण-व्यपरोपणं हिंसा।' -तत्त्वार्थसूत्र ७, ४३ मण-वयण-कायेहिं जोगेहिं दुप्पउत्तेहिं जं पाण-ववरोवणं कज्जइ सा हिंसा' -दशवैकालिक चूणि, प्रथम अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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