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अहिंसा-दर्शन
के पुण्य का भागी है या विषप्रयोग के आधार पर मौत देने के पाप का भागी है ? उसने मनुष्य की हिंसा की है अथवा दया ?
इस प्रश्न का उत्तर कुछ कठिन नहीं है। मनुष्य में यदि सामान्य विवेक हो तो भी वह इसी परिणाम पर पहुंचेगा कि-भले ही डाक्टर, रोगी के प्राण न ले सका और रोगी नीरोग भी हो गया; फिर भी डाक्टर तो मनुष्य की हत्या के पाप का भागी ही है ! यद्यपि वहाँ द्रव्य-हिंसा नहीं है, फिर भी माव-हिंसा अन्तर में स्थित है। क्योंकि डाक्टर के मन में तो हिंसा की भावना उत्पन्न हुई थी, फलतः उसी हिंसा-भाव के कारण डाक्टर हिंसा के पाप का भागी हुआ। इस दुष्कर्म के अनुसार डाक्टर ने रोगी को जहर नहीं पिलाया, बल्कि अपने आपको जहर पिलाया यथार्थ में उसने अपने आपको मार डाला । अपनी सद्भावना का, अपने सद्गुणों का, अपनी उच्चता का और कर्तव्य (Duty) का घात करना भी एक प्रकार का आत्म-घात ही है।
यह विचारधारा जैन-आगमों की है। भाव-हिंसा को भली-भांति समझने के लिए उपरिलिखित दोनों रूपक बहुत उपयोगी हैं। यहाँ द्रव्य-हिंसा कुछ भी नहीं, अकेली भाव-हिंसा ही 'महतो महीयान्' है; वह तन्दुल-मत्स्य को सातवें नरक में ढकेल देती है।
उपर्युक्त दृष्टान्त के आधार पर अहिंसा के साधकों को इस भाव-हिंसा से सदैव बचना चाहिए, और तन्दुलमत्स्य के-से दुर्विकल्पों से तो अवश्य ही बचना चाहिए । अखिल विश्व की आत्माओं से संतों का यही कहना है कि-"तुम अकेले ही दुनियाभर की सारी गतिविधि के ठेकेदार नहीं हो। किसी का जन्म-मरण तुम्हारे हाथ में नहीं है । फिर क्यों व्यर्थ ही किसी को मारने की दुर्भावना रखते हो ?"
दूसरे प्रकार का भंग या विकल्प वह है, जिसमें द्रव्य-हिंसा तो हो, किन्तु मावहिंसा न हो । एक साधक अपने जीवन की यात्रा तय कर रहा है। उस समय उसके मन में हिंसा नहीं है और हिंसा की वृत्ति भी नहीं है । यद्यपि वह सावधानी के साथ प्रवृत्ति करता है, फिर भी हिंसा हो जाती है। आखिर जब तक यह शरीर है, तब तक हिंसा रुक ही कैसे सकती है ! आध्यात्मिक उत्क्रान्ति की तेरहवीं भूमिका तक भी अंशतः हिंसा होती रहती है । जब तक आत्मा और देह का सम्बन्ध है, तब तक यह कार्यक्रम चलता ही रहेगा । कोई बैठा है, और हवा का भोंका लग रहा है, इस स्थिति में भी असंख्य जीव मर रहे हैं। एक पलक का झपकना, यद्यपि अपने आप में एक अतिसूक्ष्म हरकत हैं, किन्तु उसमें भी असंख्य जीव मर जाते है। इस प्रकार जब तक शरीर है, तब तक हिंसा चल रही है और वह भी तेरहवें गुणस्थान तक। यह बात कोई मन-गढन्त अपितु आगमों द्वारा प्रतिपादित है । भगवती-सूत्र के अनुसार केवल
५ 'पक्ष्मणोऽपि निपातेन तेषां स्यात् स्कन्ध-पर्ययः ।'
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