________________
अहिंसा : जीवन की अन्तर्गंगा
संसार में सभी प्राणी व्यग्र और व्यस्त दिखाई देते हैं। छोटी-छोटी चींटियाँ दिन हो या रात दौड़-दौड़ कर अन्नकणों को एकत्रित करती हुई नजर आती हैं । पक्षीगण सुबह से शाम तक दाने चुनते हुए दीख पड़ते हैं। आदमी चाहे दिन हो या रात, शरीर कंपा देने वाली ठंडक हो या देह झुलसा देने वाली गर्मी, हमेशा कहीं पत्थर तोड़ता हुआ, कहीं कारखानों में लोहा पीटता हुआ, कहीं खेतों में हल चलाता हुआ पाया जाता है । आखिर इन सब कार्यकलापों के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होगा ! कारण है--जीवन का सुख, मन की शान्ति । हर प्राणी यह चाहता है कि उसे ही ज्यादा से ज्यादा सुख-सुविधाएँ प्राप्त हों, परन्तु जब तक वह दूसरों की सुख-सुविधाओं पर ध्यान नहीं देगा, वह अपने आप में स्वार्थी, आरामतलब, अहंकारी एवं असंतोषी बन कर दूसरों की जरूरतों की उपेक्षा करता रहेगा, दूसरों के अधिकारों को छीनता रहेगा, दूसरों के श्रम का शोषण करता रहेगा, तब तक वह स्वयं सुख और शांन्ति से युक्त नहीं हो सकेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो, ऐसा प्राणी दूसरों की हिंसा करता रहेगा-फिर भले ही कायिक हिंसा कम हो, वाचिक या मानसिक ज्यादा हो । अतः किसी भी व्यक्ति को सच्चे अर्थों में सुख-शान्ति-सम्पन्न बनना है तो, उसे मनसा, वाचा, कर्मणा अहिंसा का स्वीकार करना ही होगा। अहिंसा सर्वक्षेत्रों में आवश्यक
इसी कारण संसार के मुर्धन्य मनीषियों ने सुख-शान्तिपूर्वक जीवनयापन के लिए अहिंसा की खोज की।
अहिंसा मानव-जाति के ऊर्ध्वमुखी विराट् चिन्तन का सर्वोत्तम विकास-बिन्दु है। क्या लौकिक और क्या लोकोत्तर-दोनों ही प्रकार के मंगल-जीवन का मूलाधार 'अहिंसा' है। व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र और राष्ट्र से विश्वबन्धुत्व का जो विकास हुआ या हो रहा है, उसके मूल में अहिंसा की ही पवित्र भावना काम करती रही है। मानव सभ्यता के उच्च आदर्शों का सही-सही मूल्यांकन अहिंसा के रूप में ही किया जा सकता है। हिंसा और विनाश, अधिकार-लिप्सा और असहिष्णुता, सत्ता-लोलुपता और स्वार्थान्धता से विषाक्त उत्पीडित संसार में अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ अमृतमय विश्राम-भूमि है, जहाँ पहुँच कर मनुष्य आराम की साँस लेता है। अपने को और दूसरों को समान धरातल पर देखने के लिए अहिंसा की निर्मल आँख का होना नितान्त आवश्यक है । यदि अहिंसा न हो, तो मनुष्य न स्वयं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org