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________________ अहिंसा-दर्शन अपने को पहचाने और न दूसरों को ही । पशुत्व से ऊपर उठने के लिए अहिंसा का अवलम्बन अनिवार्य है। विभिन्न धर्मों में अहिंसा-भावना अहिंसा की परिधि के अन्तर्गत समस्त धर्म और समस्त दर्शन समवेत हो जाते हैं । यही कारण है कि प्रायः सभी धर्मों ने इसे एक स्वर से स्वीकार किया है और अन्ततोगत्वा इसी का आश्रय लिया है। हमारे यहाँ के चिन्तन में, समस्त धर्म-सम्प्रदायों में अहिंसा के सम्बन्ध में, उसकी महत्ता और उपयोगिता के सम्बन्ध में दो मत नहीं हैं, भले ही उसकी सीमाएँ कुछ भिन्न-भिन्न हों। कोई भी धर्म यह कहने के लिए तैयार नहीं कि झूठ बोलने में धर्म है, चोरी करने में धर्म है या अब्रह्मचर्य-सेवन करने में धर्म है। जब इन्हें धर्म नहीं कहा जा सकता, तो हिंसा को कैसे धर्म कहा जा सकता है ? हिंसा को हिंसा के नाम से कोई स्वीकार नहीं करता । अतः किसी भी धर्मशास्त्र में हिंसा को धर्म और अहिंसा को अधर्म नहीं कहा गया है। सभी धर्मों ने अहिंसा को ही परम धर्म स्वीकार किया है। मनुष्य के चारों ओर पार्थिक जीवन का मजबूत घेरा पड़ा हुआ है, उसे तोड़ कर उच्चतम आध्यात्मिक जीवन-निर्माण के लिए अहिंसा के बिना गुजारा नहीं है । जैनधर्म में अहिंसा-भावना अहिंसा जैनधर्म का तो प्राण है। जैनधर्म का नाम लेते ही सर्वसाधारण को अहिंसा की स्मृति हुआ करती है। आज से पच्चीस-सौ वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने अहिंसा की नींव को सुदृढ़ बनाने के लिए, हिंसा के विरोध में क्रांति की। अहिंसा और धर्म के नाम पर हिंसा का जो नग्न नृत्य हो रहा था, जनमानस भ्रान्त किया जा रहा था, वह भगवान् महावीर से देखा नहीं गया। उन्होंने हिंसा पर लगे धर्म और अहिंसा के मुखौटों को उतार फेंका और सामान्य जनमानस को उबुद्ध करते हुए कहाहिंसा कभी भी धर्म नहीं हो सकती। विश्व के सभी प्राणी-वे चाहे छोटे हों या बड़े, पशु हों या मानव, सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता।' सबको सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है। सबको अपना जीवन प्यारा है ।२ जिस हिंसक व्यापार को तुम अपने लिए पसन्द नहीं करते, उसे दूसरा भी पसन्द नहीं करता। जिस दयामय व्यवहार को तुम पसन्द करते हो, उसे सभी पसन्द करते हैं। यही जिनशासन के कथनों का सार है, जो कि एक तरह से सभी धर्मों का सार है। किसी के प्राणों की १ सव्वे जीवावि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं । -दशवकालिक सूत्र ६।११ -आचारांग सूत्र १।२।३ २ सव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुहपडिकूला । ३ जं इच्छसि अप्पणतो, जं च न इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि, एत्तियग्गं जिणसासणयं । -बृहत्कल्पभाष्य' ४५८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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