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अहिंसा - दर्शन
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रहेगा । पत्थर भी, काष्ठ भी - सभी कर्म बाँधते रहेंगे । जिस प्रकार शरीर से टकरा कर किसी जीव का प्राणवात हो सकता है, वैसे ही पत्थर से टकरा कर भी बहुत प्राणी मरते हैं । जब पत्थर को हिंसा नहीं लगती, तो फिर शरीर को हिंसा क्यों लगेगी ? वास्तव में हिंसा करने वाला तो राग-द्वेषग्रस्त मन है, केवल अकेला मन भी नहीं, केवल अकेला शरीर भी नहीं ।
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दूसरी बात है, कर्म का बन्ध किस कर्म से होता है यह भी एक विचारने की चीज है । कर्मबन्ध न नामकर्म से होता है, न गोत्रकर्म से । नामकर्म से कर्म का बन्ध नहीं हो सकता, तो फिर शरीर तो नामकर्म की एक प्रकृति है, उसी का फल यह दृश्यशरीर है, उससे कर्मबन्ध कैसे होगा ? आठ कर्मों में नया कर्मबन्ध करने वाला एक ही कर्म है और वह है - मोहकर्म ! जब मोहकर्म होगा तभी नवीन कर्म का बन्ध हो सकेगा, अन्यथा नहीं । वीतरागी को इसीलिए तो कर्मबन्ध नहीं होता, इसलिए कि उनका मोहकर्म नष्ट हो गया होता है ।
आचार्य अमृतचन्द्र ने इस सम्बन्ध में एक गम्भीर बात कही है कि- "वस्तुतः अन्तर्मन में रागादि का होना ही हिंसा है ।"
प्राणियों को मारना और जिलाना किसी के वश की बात नहीं है । अनन्त बलशाली तीर्थंकर भी किसी प्राणी को अपने आयुष्य से एक क्षण ज्यादा जिला नहीं सकते और न चक्रवर्ती और इन्द्र ही अपनी पूरी शक्ति लगा कर भी किसी प्राणी को आयुष्य से एक क्षण पहले मार सकते हैं । न कोई किसी को मार सकता है, और न कोई किसी को जिला सकता है । आप पूछेंगे, तब फिर हिंसा - अहिंसा की बात ही कैसी ? जब कोई किसी को मार नहीं सकता, तो किसी की हिंसा भी नहीं हो सकती । और कोई किसी को जिला नहीं सकता, तो फिर दया करुणा का आधार ही कुछ नहीं रह जाता । 'न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी । किसी को जिलाना, बचाना हमारी शक्ति के बाहर है, तो फिर दया करुणा का उपदेश भी निरर्थक है ।
अभिप्राय यह है कि किसी को मारना और जिलाना हमारे हाथ में नहीं है । किन्तु एक बात हमारे हाथ में जरूर है और वह है --- मारने का संकल्प करना, जिलाने का संकल्प करना | हिंसा और अहिंसा की धारा इसी उत्स में से फूटती है । हमारे मन में जब किसी को मारने का संकल्प उठता है, किसी को त्रास और कष्ट देने की भावना जगती है, तब हिंसा की ज्वालाएँ दहकने लग जाती हैं। किसी की हिंसा हो या न हो, पर मन की दूषित भावना के कारण हम हिंसक हो गए, हिंसा कर चुके । और जब किसी प्राणी को दया और करुणा से प्रेरित हो कर जिलाने का संकल्प जगता है उसके लिए सुख और शान्ति की भावना हमारे हृदय में प्रस्फुटित होती है, तभी से अहिंसा का दिव्यभाव हमारे हृदय में अवतरित हो चुका । भले ही हमारे प्रयत्नों से एक भी प्राणी न बच सका हो, किन्तु हमारी अहिंसा अपने आपमें जागृत हो गई । हमारी करुणा ही हमारी अहिंसा है । किसी को नहीं मारने का संकल्प अहिंसा का एक पक्ष
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