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द्रयहिंसा-भावहिंसा
अहिंसा को ठीक तरह समझने के लिए और उसके वास्तविक रूप को जानने के लिए सर्वप्रथम हिंसा को समझ लेना जरूरी है, क्योंकि हिंसा का विरोधी अहिंसा है। अहिंसा का साधारणतया अर्थ होता है, हिंसा का होना। हिंसा का विरोधीभाव वही हो सकता है, जिसके रहते हिंसा न हो सके। इस प्रकार अहिंसा की जो मूल व्याख्या है, वह सर्वप्रथम 'न' के ऊपर ही आधारित है। अतएव अहिंसा को पूरी तरह समझने के पहले, हिंसा को समझ लेना ठीक होगा। और उस स्थिति में अहिंसा का ठीक-ठीक पता लग सकेगा।
महान तीर्थंकरों तथा जैनाचार्यों ने मूल में हिंसा के दो भेद किए हैं-(१) भाव-हिंसा और (२) द्रव्य हिंसा । उक्त भेदों का गहराई से अध्ययन मनन करने पर मालूम हुआ कि हिंसा-अहिंसा के यथार्थ विश्लेषण या पृथक्करण के लिए उन महापुरुषों ने संसार के सामने एक महत्त्वपूर्ण बात रख दी है। भावहिंसा और द्रहिंसा
शरीर से प्राणों का अलग होना-यह मरना है, हिंसा नहीं है । इस दृष्टि से जैनदर्शन ने हिंसा के दो रूप कर दिये हैं-द्रव्यहिंसा और मावहिंसा। जहाँ मारने का संकल्प है, राग-द्वेष की भावना आई, और इस स्थिति में किसी प्राणी की हिंसा हो भी सकती हो, नहीं भी हो सकती हो, वह निश्चय में हिंसा है ही, उसे भावहिंसा कहा है । वह बन्धन है। किन्तु हिंसा का एक दूसरा रूप भी है और जिसकी व्याख्या बहुत गहरी है वह है द्रव्यहिंसा । द्रव्यहिंसा में किसी का प्राणघात तो होता ही है, किन्तु उक्त प्राणघात में जो निमित्त बनता है, वह मात्र शरीर बनता है, मन की प्रवृत्ति उसके साथ नहीं जुड़ती है, उस प्राणघात में राग-द्वेष का संकल्प नहीं रहता है, इसलिए वह बाहर में प्राणघात जरूर है, पर अन्दर में हिंसा नहीं है। उससे कर्मबन्ध नहीं हो सकता।
__एक बात और विचारणीय है कि कर्मबन्ध मन से होता है या शरीर से । शरीर तो जड़ है, इसमें न विचार है, न अध्यवसाय है । अतः न उसमें राग है, न द्वेष है। शरीर यदि कर्मबन्ध कर सकता है, तब तो फिर हर जड़पदार्थ को कर्मबन्ध होता
१ हिंसाए परूवियाए, अहिंसा परूविया चेव ।'
- दशवकालिक चूणि, प्रथम अध्ययन
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