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अहिंसा-दर्शन
अहिंसा ठंडी हो गई है। आज के अहिंसावादी धर्मगुरु, अपने लाखों अनुयायी होने का दावा करते हैं। यदि सामहिक रूप में अहिंसात्मक प्रतीकार के लिए ये लोग बांगला देश की सीमाएँ पार करें, और नंगी संगीनों के सामने छातियाँ खोल कर खड़े हो जाएँ, तो पाकिस्तान तो क्या, सारा विश्व हिल उठेगा। जब विश्व की ओर से उक्त हजारों लाखों बलिदानियों को ले कर पाकिस्तान पर सामूहिक नैतिक आक्रमण होगा तो पाकिस्तान का दम टूट जाएगा। पर, ऐसा नैतिक साहस है कहाँ आज अहिंसावादियों में ! साग-सब्जी और कीड़े-मकोड़ों की नाममात्र की अहिंसा पाल करके ही आज के ये तथाकथित अहिंसावादी संतुष्ट हैं और अहिंसा की यह निर्माल्य प्रक्रिया अहिंसा के दिव्य तेज को धूमिल कर रही है। यदि आपकी अहिंसा विश्व के जघन्य हत्या काण्डों का वस्तुत: कोई प्रतीकार नहीं कर सकती, तो फिर अहिंसा का दम्भ क्यों ? फिर तो क्यों नहीं; यह स्पष्ट घोषणा कर देते कि हिंसा का उत्तर हिंसा ही है, अहिंसा नहीं। पर इतना भी साहस कहाँ है ?
प्रत्यक्ष अहिंसक प्रत्याक्रमण की बात तो छोड़िए, आज तो ये मेरे धर्मगुरु साथी मौखिक विरोध भी नहीं कर रहे हैं। हजारों की सभा में उपदेश होते हैं, वही घिसे-पिटे शब्द, जिनमें कुछ भी तो प्राण नहीं। वर्तमान की समस्याओं को छूते तक नहीं । समग्र उपदेश जीवन के पार मृत्यु के दायरे में जा रहा है। इनके स्वर्ग और मोक्ष मरने पर हैं, जीते जी नहीं । होना तो यह चाहिए था कि हजारों धर्मगुरु प्रतिदिन के प्रवचनों में बांगलादेश के जातीय विनाश के सम्बन्ध में खुल कर बोलते, हिंसा के विरोध में वातावरण तैयार करते । कम से कम इतना तो हो सकता था, पर . देखते हैं, इतना भी कहाँ हुआ है ?
___मन्दिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों और अन्य धर्म-स्थानों में करोड़ों-अरबों की सम्पत्ति जमा है । धर्मगुरुओं की प्रतिष्ठा के लिए आडम्बर के कामों में लाखों ही खर्च हो रहे हैं । यदि यह सब पीड़ितों की सेवा के लिए खर्च होता, तो कितना अच्छा होता? धर्म का वास्तविक रूप तो जनसेवा में है । यही तो सच्ची अहिंसा और करुणा है। देर तो हो चुकी है, फिर भी यदि कुछ साहसिक प्रयत्न प्रारम्भ किए जाएँ तो अहिंसा का तेजस्वी दिव्यरूप चमक सकता है ।
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