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________________ अहिंसा की विधेयात्मक त्रिवेणी १४६ दया है, करुणा है, क्या है ? यह सब कुछ नहीं है। यह अधिकार है--अपने भाई का, और वह बराबर के सम्मान से देना होता है। सम्पत्ति भी व्यक्ति की नहीं है, समाज की है। समाज का हर व्यक्ति बन्धु है । फलतः उसे देना दया अथवा करुणा नहीं। वह तो दायभाग है, अधिकार है। यह सिद्धान्त सेवा को सहयोग का रूप देता है, अधिकार की स्थिति में पहुंचाता है। समादर की भावना, जो सेवा का प्राणतत्त्व है, वह इसी भावना में सुरक्षित रहता है। सेवा : गंगा की त्रिपथगा धारा सेवा तप के तीन परिणाम होते हैं । सेवा एक है, किन्तु वह अन्दर में तीन धाराओं में त्रिपथगा गंगा की भाँति प्रवाहित है। अत: वह तीन-तीन काम करती है । अमुक अंश में सेव्य व्यक्ति के प्रति सुख-प्रदानरूप सहानुभूति का अंश होने से यह पुण्यास्रव है । वैयक्तिक सुखाभिलाषा एवं सुखसाधनों की इच्छा का निरोध होने से संवर है ।२१ और इसी में और अधिक भावविशुद्धिरूप आत्मलीनता, आत्मपरिणति होने से पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा है । संवर और निर्जरा मुक्ति के द्वार है । द्वार क्या, स्वयं मुक्तिस्वरूप ही हैं अमुक अंश में। सेवा महत्तर है प्रातःकाल साधक गुरुचरणों में जब प्रत्याख्यान एवं तपश्चरण लेने को उपस्थित होता है, तब गुरुदेव यदि संघ में किसी रोगी आदि की परिचर्या के लिए उसकी आवश्यकता समझें तो उससे तप नहीं कराते हैं, सेवा का कार्य बताते हैं । २२ अनशन आदि तप की अपेक्षा वह सेवा का तप महान् है, अतः शिष्य के लिए भगवान् महावीर का सन्देश ही नहीं, आदेश है कि वह तप न करके सेवा का कार्य करे। इतना ही नहीं, सेवा के लिए तो यहाँ तक बताया गया है कि साधक का पहले से उपवास आदि अनशन तप चालू हो, और इसी बीच यदि सेवा का कोई आवश्यक कार्य आ जाए तो तप को छोड़ कर सेवा का कार्य करना चाहिए। तपोभंग का कोई दोष नहीं होता, लाभ ही होता है । २३ क्योंकि अनशनतप से सेवा का तप महत्तर है, महत्तर के लिए अल्प छूटता ही आया है। सेवा : मानव-जीवन की विशेषता विश्व में अनन्त प्राणी हैं । असंख्य देव हैं, असंख्य नारक हैं, असंख्य पशु-पक्षी हैं । अन्यत्र कहीं भी सेवाधर्म का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। नारक एक-दूसरे की क्या सेवा कर सकते हैं ? देव भी अधिकतर ऐसी ही स्थिति में हैं। क्योंकि न वहाँ परिवार २१ आस्रवनिरोधः संवरः । -तत्त्वार्थसूत्र १ २२ महतां-प्रत्याख्यानपालनवशाल्लभ्यनिर्जरापेक्षया बृहत्तरनिर्जरालाभहेतुभूतम् .. -प्रवचनसारोद्धारवृत्ति २३ महत्तरकादेशेन भुजानस्य न भंगः । -आचार्यनमिकृत प्रतिक्रमणवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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