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________________ १४८ अहिंसा-दर्शन राज्य नहीं चाहिए ; न चाहिए स्वर्ग और मोक्ष ! मेरी तो यही एक कामना है कि जो . प्राणी-फिर वे कोई भी हों, कैसे भी हों-दुःख से तप्त हैं, मैं उनकी पीड़ा दूर करूँ, उन्हें सुख-शांति पहँचाऊँ।" बौद्धदर्शन के महान् आचार्य शान्तिदेव का कहना है-"वही बुद्ध होने वाला बोधि आत्मा है, जो यह भावना रखता है कि संसार के सभी प्राणियों की पीड़ा मैं स्वयं भोग डालू, ताकि सब प्राणी सुखी हो सकें । जब तक धरती पर, एक भी दुःखी प्राणी है, तब तक मुझे मोक्ष नहीं चाहिए। मेरा आनन्द पीड़ितों की सेवा में है, मुक्ति में नहीं ।१७ भिक्षा में से भी भिक्षा भगवान् महावीर ने अपने भिक्षुसंघ में यह नियम प्रचलित किया था कि जो भिक्षु नगर में भ्रमण कर भिक्षा लाए, वह अपने स्थान पर आ कर उपस्थित साधुओं को विनम्रभाव से साग्रह निमन्त्रण करे कि प्रस्तुत भोजन में से आप यथारुचि ग्रहण कर मुझ पर अनुग्रह करें।१८ आपका यह अनुग्रह मुझे भवसागर से पार उतारने वाला होगा। निमन्त्रण करने पर यदि कोई भोजन करना चाहे तो उसके साथ भोजन करे । १६ उक्त उल्लेख कितना उदात्त है ! नगर में घर-घर द्वार-द्वार घूमा है साधू ! अपमान मिला है, तिरस्कार मिला है, बड़ी कठिनाई से कुछ मिल पाया है और इधर जोरदार भूख लगी है। सम्भव है दो-चार दिन से कुछ भी नहीं मिला हो, कुछ भी नहीं खाया हो । यदि तपश्चरण रहा, तो महीनों से अन्न-जल ग्रहण न किया हो । फिर भी प्राप्त भोजन में से दूसरों को सादर देना है। लेने वालों के द्वारा लेना अपने ऊपर भार नहीं, अनुग्रह समझना है। और अनुग्रह भी वह अनुग्रह, जो संसार-सागर से पार करने वाला है। बताया गया है कि 'निमंत्रित करते समय साथियों को जब प्राप्त भोजन दिखाए, तो हर अच्छी से अच्छी एक-एक चीज को निर्दिष्ट करके दिखाए, छिपाए नहीं। यदि छिपाता है और बिना निमन्त्रण किए खाता है, तो यह चोरी है । परस्पर के सहयोग एवं सेवाभाव का कितना उच्च आदर्श है ! भगवान् महावीर ने तो यहाँ तक कहा है२ ० कि जो प्राप्त सामग्री का उचित संविभाग नहीं करता है, साथियों में एवं जरूरतमंदों में समानभाव से वितरण नहीं करता है, वह मुक्ति-लाम नहीं कर सकेगा।' और यह ध्यान में रखने जैसी बात है कि यह संविभाग है । संविभाग का अर्थ है-अपने प्रिय बन्धु के लिए बराबर का भाग, हिस्सा । यह कृपा नहीं है, जो कभी किसी असहाय बेचारे को सहायता के लिए की जाती है। एक भाई दूसरे भाई को पिता की सम्पत्ति में से जब कुछ देता है तो क्या वह आज का तथाकथित दान है, १७ 'मोक्षेणारसिकेन किम् ?' १८ 'जइ मे अणुग्गहं कुज्जा, साहू हुज्जामि तारिओ।' १६ 'जे इ तत्थ केई इच्छिज्जा, तेहिं सद्धिं तु मुंजए।' २० 'असंविभागी न हु तस्स मोक्खो' । -दशवकालिक ५।१६४ -दशवकालिक ५।२।६५ -दशवकालिक ६।२।२२ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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