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________________ अहिंसा की विधेयात्मक त्रिवेणी १४७ प्रयत्न करता था । इसके जीवन का उद्देश्य निष्कामभाव से दूसरों की सेवा करना था । योग, ध्यान और तप करना आसान है, पर किसी की सेवा करना उतना आसान नहीं है | अतः सेवा अपने आप में एक बड़ा तप है, एक बड़ी साधना है तपस्या की अपेक्षा भी सेवा बड़ी है ।" अतिथि साक्षात् भगवान् है आपको काफी तेज भूख लगी है, भोजन करने बैठे हैं, बहुत सुन्दर भोजन थाल में परोस कर सामने रखा है । इतने में ही कोई अतिथि एवं क्षुधातुर व्यक्ति आ जाता है । आप अपना प्राप्त भोजन सहर्ष उसे दे देते हैं, स्वयं भूखे रह जाते हैं । कोई बात नहीं, बाद खा लूंगा, यह संकल्प भी नहीं है । संभव है - आपके लिए कुछ और रसोई में बचा भी न हो । यह सहर्ष भोजन देना, देने के बाद भी प्रसन्नता बनाए रखना, अपने आप में साधारण बात नहीं है। ऐसे समय में मन की यह उदार भावना असाधारण उदात्त भावना है । यह गृहस्थधर्म का बारहवाँ अतिथिसंविभाग व्रत है, जो सब व्रतों का शिरोमणिव्रत है, गगनचुंबी व्रत- प्रासाद ( महल ) का स्वर्णकलश है। भारतीय इतिहास का राजा रन्तिदेव ऐसा ही दाता था । देश में भयंकर दुष्काल पड़ा है । राजा सब कुछ प्रजा को अर्पण कर देता है । स्वयं भूखा रहता है, दूसरों को खिलाता जाता है। कहते हैं -- लम्बे समय तक भूखे रहने के बाद राजा के लिए एक दिन भोजन जुटाया, इतने में ही सामने एक चाण्डाल आ खड़ा हुआ, भूख में व्याकुल, जर्जर शरीर, आँखों में अटके प्राण ! जिस दुष्काल में उच्चकुलीन ब्राह्मणों को भी कोई भोजन नहीं देता, वहाँ बेचारे शूद्र चाण्डाल को कौन भोजन देता ? राजा रन्तिदेव ने चाण्डाल को देखा तो उसका सहर्ष स्वागत किया और अपना भोजन चाण्डाल को अर्पण कर दिया, ऐसे कर दिया --- जैसे द्वार पर आए साक्षात् भगवान् की पूजा में भक्त नैवेद्य अर्पित कर देता है । पुराणकार कहता है - चाण्डाल के रूप में साक्षात् विष्णु भगवान् आए थे। ठीक ही कहता है वह । घर पर आया अतिथि न ब्राह्मण है, न चाण्डाल है, न और कुछ है ; वह तो साक्षात् भगवान् है । १५ सेवा स्वर्ग और अपवर्ग से भी महान् है भारत का तत्त्वदर्शन स्वर्ग और अपवर्ग (मुक्ति) से भी बढ़कर सेवा को मानता है । भारत के साधक को न स्वर्ग चाहिए, न मुक्ति चाहिए । उसकी तो एकमात्र यही कामना है कि वह पीड़ितों की पीड़ानिवृत्ति के लिए अपने जीवन का एकएक क्षण, अपने प्राप्त साधनों का एक-एक कण पीड़ितों की सेवा में अर्पण कर दे ! राजा रन्तिदेव ने ही भावविभोर होकर कहा है “मुझे धरती का चक्रवर्ती का ૧૬ १० 'अतिथिर्भगवान् स्वयम् |' १६ " न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्गं नापुनर्भवम् । कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम् ॥” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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