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________________ १४६ अहिंसा-दर्शन बकने लगता है । बहुत से विक्षिप्त स्थिति के रोगी तो मारने तक लगते हैं । परन्तु सच्चा परिचारक प्रशान्त महासागर बन जाता है । शिव की तरह प्रसन्नभाव से गरल - पान कर जाता है । यदि परिचारक बड़बड़ाने लगे, सेवा को आफत समझने लगे, स्वयं उत्तेजित होने लगे, तो क्या सेवा होगी ? सेवा में दूसरे के सुख का ही ध्यान रखना होता है, अपने सुख का नहीं । सेवा के लिए अपनी सुख-वृत्ति को तिलांजलि देनी हो होगी । कभी कहा था किसी ने - सुखार्थिनः कुतो विद्या और मैं इसके बदले कहता हूँ — 'सुखार्थिनः कुतः सेवा ।" सेवा स्वयं तप है। इसीलिए सेवा को सबसे बड़ा तप कहा है । अपनी इच्छाओं का संयमन किये बिना कोई कैसे किसी की सेवा कर सकता है ? सेवा में अपने लोभ एवं स्वार्थ को कम करना होता है; वैयक्तिक सुखवृत्ति का परित्याग करना होता है । और यह इच्छा का निरोध है । इच्छा निरोध और क्या है ? तप ही तो है ! 'इच्छानिरोधस्तपः' और यह वैयावृत्य (सेवा) का तप कौन-सा तप है ? बाह्यतप नहीं, अन्तरंग तप13 है । बाहर में परिचर्या के होने से यह बाह्यतप होना चाहिए था; परन्तु अन्तर में इच्छानिरोध, वासनामुक्ति, निरहंकार - भावना आदि कुछ ऐसी परिणतियाँ हैं, सेवा की आन्तरिक चेतना में । फलतः सेवा १४ अन्तरंगतप की भूमिका में पहुँच जाती हैं । तप से सेवा महान् है पुराण की एक कथा के अनुसार एक बार स्वर्गलोक में एक आश्रम के वासी ऋषि-मुनियों का देवत्व के रूप में एक साथ जन्म हुआ। साथ ही उस आश्रम में रहने वाला एक अनपढ़, किन्तु सच्चे मन से दीन दुःखियों की सेवा करने वाला एक सेवक भी मर कर वहीं देवता बना । नये आगन्तुक देवताओं के स्वागत सम्मान हेतु पहले के देवताओं ने एक विराट् उत्सव का आयोजन किया। देवताओं ने तपस्वी ऋषि-मुनियों को सादे स्वर्ण मुकुट भेंट दिये, किन्तु सेवक को रत्नजटित स्वर्णमुकुट भेंट में दिया । इस पर तपस्वी ऋषि क्रुद्ध हो कर कहने लगे -- " बहुमूल्य रत्नजटित स्वर्ण मुकुट के अधिकारी तो हम थे, किन्तु आप लोगों ने वह हमें न दे कर इस सेवक को कैसे दे दिया, जो कभी व्रत-उपवास आदि कुछ करता ही नहीं था । हमारी भाँति कठिन तपस्या इसने कहाँ की ?” देवों ने ऋषिमुनियों से कहा - 'आप तपस्या करते थे, यह सत्य है, लेकिन यह व्यक्ति तपस्या तो नहीं करता था, पर दीन-दुखियों की सेवा में तो सदा रत रहता था । जिस किसी को कष्ट में देखता, उसे कष्ट से यथाशक्ति मुक्त करने १३ प्रायश्चित्त - विनय वैयावृत्य-स्वाध्याय व्युत्यर्ग-ध्यानान्युत्तरम् । १४ 'अन्तःकरणव्यापारात्' Jain Education International -- तत्त्वार्थ सूत्र अ० २० - तत्त्वार्थ राजवार्तिक ६ |२०१२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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