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अहिंसा को विधेयात्मक त्रिवेणी
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तीर्थकर कैसे बना जाता है ?
परन्तु यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि तीर्थंकर बना कैसे जाता है ? वह कौन-सी साधना है, जिसके द्वारा धरती का साधारण मानव प्राणी तीर्थंकर के सर्वोत्कृष्ट पद पर पहुंच जाए ? भगवान् महावीर ने कहा है-सेवा और शुश्रूषा (वैयावृत्य) के आधार पर तीर्थकरपद भी प्राप्त किया जा सजता है ।११ सेवा : अहं एवं सुख-वृत्ति का विसर्जन
मनुष्य बड़ा से बड़ा तथा कठोर से कठोर तप कर सकता है। एक आसन से बैठ कर हजारों मालाएँ फेर सकता है । शरीर एवं इन्द्रियों को निग्रह के नाम पर अपने को ध्वस्त कर सकता है, परन्तु सेवा करना सहज नहीं है । सेवा के लिए अपने अहं को मारना होता है, विनम्र होना होता है अपनी सुख-सुविधाओं को भी एक ओर ठोकर लगानी होती है । सेवा और बड़प्पन का अहंकार एक साथ नहीं चल सकते । सेवा और अपना वैयक्तिक सुख, अपना खुद का आराम एक साथ नहीं रह सकते । सेवा के लिए अपने को समर्पण करना होता है । और समर्पण में अपना जैसा कुछ शेष नहीं रहता है। इसीलिए कहा गया है-१२ "सेवाधर्म परमगहन है, वह योगियों के लिए भी अगम्य है।"
यदि पिता कहीं बाहर जा रहा है । साथ में नन्हा बालक है, पिता की अंगुली का सहारा लिए है । इस स्थिति में पिता दण्डायमान तन कर सीधा चल सकता है क्या ? बालक को अंगुली का अपना सहारा दे कर साथ ले चलने के लिए पिता को झुक कर ही चलना होगा । सेवा भी अहं को झुका कर ही हो सकती है।
घर में कोई बीमार है, पीड़ा से व्याकुल है, वेदना से कराह रहा है, बारबार करवट बदलता है । शरीर चाहता है कोई उसे कोमल हाथों से सहलाए । कभी दवा तो कभी पानी अपेक्षित है । कभी मूत्रबाधा तो कभी शौच जाने का चक्कर है। इस स्थिति में रोगी की परिचर्या के लिए जो पास बैठा है, वह क्या करे ? खर्राटा ले कर सोए ? पलंग पर पड़ा-पड़ा आराम करे ? नहीं, यह नहीं हो सकता । रात के गहराते सन्नाटे में उसे अकेले बीमार के पास बैठे रहना होता है, जागना होता है, हर मिनट रोगी पर दृष्टि रखनी होती है। समय पर पानी देना, दवा देना, मल-मूत्र कराना, शरीर दबाना, मधुर और स्नेह-स्निग्ध वचनों से बार-बार सान्त्वना देना, धैर्य बँधाये रखना, रोगी का कोई एक काम होता है क्या ? रोगी बडबड़ाता है, कभीकभी तो इतना उत्तेजित हो जाता है कि परिचर्या करने वाले को ही गंदी गालियाँ तक
११ वेयावच्चेण तित्थयरनामगोत्त कम्मं निबंधइ
-उत्तराध्ययन २६।४३
१२. सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः
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