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________________ १४४ अहिंसा-दर्शन को विराट और व्यापक रूप से विकसित करने में संस्कृति एवं वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। जिस संस्कृति में जीवन के जितने विराट् संकल्प होंगे, जितने उदात्त आदर्श होंगे, हमारी चेतना को उतनी ही अधिक विराट्ता की प्रेरणाएँ मिलेंगी। भारतीय संस्कृति में सेवा, समर्पण एवं सद्भाव के विराट आदर्श प्रस्तुत किए गये हैं । यहाँ व्यक्ति का मूल्यांकन ऐश्वर्य एवं सत्ता के आधार पर नहीं, किन्तु सेवा एवं सद्गुणों के आधार पर किया गया है। हमारा तत्त्वचिंतन यह नहीं पूछता कि तुम्हारे पास सोने-चाँदी का कितना ढेर है ? किन्तु वह तो पूछता है- 'तुमने अपने ऐश्वर्य को जनजीवन के लिए कितना अर्पित किया है ?' वह तुम्हारे पद और सत्ता को भी इसलिए कोई महत्त्व नहीं देता कि वह अपने आप में कोई बहुत बड़ी शक्ति है ? किन्तु पद और सत्ता का महत्त्व भी इसी में माना है कि तुम जनसेवा के लिए उस प्राप्त शक्ति का कितना उपयोग कर सकते हो ? एक आचार्य ने तो यहाँ तक कह दिया है-हाथ का महत्त्व हीरे और पन्ने की अंगूठियाँ पहनने में नहीं, किन्तु दान में है। इस हाथ से तुम कितना अर्पण करते हो, जन-सेवा के लिए हाथों से कितना विनियोग करते हो, इसी बात से तुम्हारे हाथ का महत्त्व है। __ मानवशरीर का महत्त्व भी उसकी सुन्दरता एवं सुडौलता में नहीं, किन्तु यह शरीर जनसेवा के लिए कितना उपयोगी होता है, किसी दुखी के आँसू पोंछने के लिए वह कितना तत्पर रहता है--इसी बात पर शरीर का और समूचे जीवन का महत्त्व है। मैंने आपसे बताया कि यों तो मानव-जीवन अनेक विशेषताओं का केन्द्र है। किन्तु इस जीवन की जो सबसे बड़ी विशेषता है, जिसके कारण मानव-जीवन अपने आपको कृतार्थ अनुभव कर सकता है, वह है--सेवा ! सेवा हमारे क्षुद्र जीवन को विराट रूप प्रदान करती है, हमारी सीमित चेतना को विकसित एवं व्यापक बनाती है और सबसे बड़ी बात यह है कि मनुष्य को ईश्वररूप में देखने की दृष्टि मिलती है, सेवा से । आत्मा में परमात्मा का दर्शन होता है-सेवा से । सेवा : मानवता का मधुरस सेवाव्रती सबसे ऊँचा व्यक्ति माना जाता है ! अखिल विश्व में तीर्थंकर का पद एक बहुत बड़ा पद है । स्वर्ग के इन्द्र और धरती के चक्रवर्ती तीर्थंकर के चरणों में ही नतमस्तक होते हैं। इन्द्र तीर्थंकर के चरणस्पर्श कर अपने को धन्य समझते हैं । और चक्रवर्ती तो उनके चरणों की धूल मस्तक पर लगाने के लिए लालायित रहते हैं । यह आध्यात्मिक और भौतिक दोनों ही प्रकार के ऐश्वर्य का पूर्ण केन्द्र है ; पुण्यप्रकृतियों में यह सबसे महान् पुण्यप्रकृति है ।१० ह दानेन पाणिर्न तु कंकणेन १० तीर्थंकरत्वं हि प्रधानभूतं सर्वेषु शुभकर्मसु । --तत्त्वार्थ-राजवार्तिक ८।११।४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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