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अहिंसा की विधेयात्मक त्रिवेणी
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मैंने आपसे कुछ दिनों पहले बताया था कि जैनसंस्कृति में चार भावनाओं में दूसरी भावना है -- प्रमोद ! प्रमोदभावना का अर्थ है – दूसरे में सद्गुणों का विकास होते देख कर प्रसन्न होना । दूसरे चैतन्य को हँसते देख कर उसकी खुशी में स्वयं भी खुश होना, प्रमोदभावना है । वह मानव क्या, जो दूसरों में सद्गुणों के फूल खिलते देख कर कुम्हला जाए ? दूसरे का विकास देख कर जिसमें उल्लास नहीं जगे, उस मानव और पशु में अन्तर ही क्या है ? हाँ, तो 'प्रमोद - भावना' मानव-चेतना की मुख्यधारा है । और उसके बाद है- 5 दुःखी जीवों के प्रति करुणाभावना ! गुण के प्रति अनुराग, और दुःखी पीड़ित के प्रति करुणा, स्नेह एवं सद्भाव ! ये दोनों ही भावनाएँ मानव चेतना की विराट् एवं व्यापक परिणति हैं । धर्म का मूल, जिसे हम सम्यग्दर्शन कहते हैं, वह चेतना की विराट्ता में ही है । इसलिए करुणा एवं अनुकंपा को सम्यग्दर्शन का मुख्य लक्षण माना गया है ।
सेवा जीवन को विराट् बनाती है
जब अपने पड़ोसी चैतन्य के प्रति हृदय में करुणा एवं अनुकम्पा का भाव जगता है, तभी व्यक्ति सेवा के लिए प्रेरित होता है । इसलिए सेवा को जीवन की विराट्ता का दर्शन माना गया है। सेवा से जनसंपर्क विस्तृत होता है । मनुष्य का जीवन क्षुद्र से विराट् बनता है ।
जीने को तो संसार में कीड़े-मकोड़े भी जीते हैं । वे भी इधर-उधर रेंगते हुए अपने शरीर की आवश्यकतापूर्ति करते हैं, स्वयं को आपत्ति से बचाने की चेष्टा करते हैं, किन्तु उनका जीवन केवल अपने तक ही सीमित है । यदि मनुष्य भी उनकी माँति अपने सुख-दु:ख की क्षुद्र अनुभूति में ही फंसा रहा, शरीर की कैद में ही पड़ा रहा, तो कीड़े के जीवन में और मनुष्य के जीवन में अन्तर क्या रहेगा ?
पशु-पक्षियों में भी चेतना का सामान्य विकास होता है । स्वयं के जीवन के भरण-पोषण एवं संरक्षण के साथ अपनी संतान के जीवन, भरण-पोषण एवं संरक्षण की भावना उनमें होती है, किन्तु उस भावना को पारिवारिक एवं सामाजिक भाव नहीं कहा जा सकता । उनमें एक-दूसरे के प्रति स्नेह एवं समर्पण की उदात्त भावना का विकास नहीं है, संकट आ पड़ने पर अपने प्राण ले कर भागने की भावना तो उनमें है, किन्तु संकटग्रस्त के प्रति सहानुभूति जतलाने का सद्भाव कहाँ है ? सहयोग का संकल्प उनमें नहीं है । मनुष्य की चेतना भी यदि केवल अपनी ही आपाधापी में लीन रहती है, तो मैं उसे पाशविक चेतना ही कहूँगा, मानवीय चेतना नहीं ।
मैंने देखा है, मानव होने से ही किसी में मानवीय चेतना का विकास हो जाता हो, ऐसी बात नहीं है । बहुत से मानव मानव हो कर भी इतने क्षुद्र, इतने संवेदनहीन व इतने क्रूर होते हैं कि पशु को भी मात कर जाते हैं | चेतना
८ क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् - सामायिक पाठ
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