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________________ १४२ अहिंसा-दर्शन आचार्य हेमचन्द्र ने भी प्रभु महावीर की इस दिव्यवाणी को उन्हीं को सम्बोधित करते हुए वीतरागस्तोत्र में कहा है-६ हे वीतराग प्रभो ! तुम्हारी पूजा-उपासना से तुम्हारी आज्ञाओं का परिपालन कहीं अधिक श्रेय है । और प्रभु की आज्ञा है-मैत्री और करुणा । इन्हीं का मूर्त रूप है-जनसेवा ! इसलिए कहा जाता है-'जनसेवा ही जिनसेवा' है। भारतीय संस्कृति में सेवा का यह उद्घोष आप कहीं भी सुन लीजिए, चारों ओर प्रतिध्वनित होता सुनाई देगा। अहिंसा, करुणा और समता आदि जितनी भी साधनाएँ हैं, सेवा एवं समर्पण की साधना उन सब के मूल में रही है और वह हजारोंहजार रूपों में विकसित होती रही है। जहाँ भी धर्म का स्वर आपको सुनाई देगा, वहाँ सेवा के स्वर की अनुगूज अवश्य ही सुनाई देगी। जैनदर्शन के प्रथम संस्कृत सूत्रकार आचार्य उमास्वाति ने इस संदर्भ में एक बड़ी ही महत्त्वपूर्ण स्थापना की है। उन्होंने कहा है-“एक दूसरे का सहयोग, सेवा करना चेतन का स्वभाव है, उसका लक्षण है, धर्म है । प्रत्येक जीव एक दूसरे के सहयोग के प्रति सापेक्ष रहता है, एक दूसरे का आधार चाहता है।" मानवदेहधारी जीव में यदि परस्पर सहयोग की आकांक्षा नहीं है, तो एक पत्थर में और उसमें क्या अन्तर है ? एक पत्थर के टुकड़े को यदि आप तोड़ते हैं, फोड़ते हैं, तो उसके पास में पड़े दूसरे टुकड़े में क्या कोई प्रतिक्रिया होती है ? कोई दया या संवेदना की स्फुरणा होती है कहीं ? किन्तु यदि एक जीवधारी पर आक्रमण होता है तो पड़ोसी जीवधारी की आत्मा अवश्य कंपित होती है, उसके मन में सुरक्षा की अनुभूति जगती है। यदि उसकी चेतना कुछ विकसित है, तो सहानुभूति की स्फुरणा भी उसमें होती है, सहयोग की भावना भी उसमें जन्म लेती है । ____ एक चैतन्य को अपने सामने पिटते देख कर, यदि पड़ोसी चैतन्य में कोई अनुकंपन नहीं होता है, तो मानना पड़ेगा कि उसकी चेतना विकसित नहीं है, यदि वह मानव भी है, तो उसमें मानवीय चेतना विकसित नहीं हुई है। उसमें प्राणों का परिस्पन्दन भले ही हो, किन्तु मानवीय चेतना का स्पंदन नहीं हुआ है । जैनदर्शन ने प्रबुद्ध आत्म-चेतना को सम्यग्दर्शन की संज्ञा दी है। उस सम्यग्दर्शन के लक्षण बताये गये हैं-'शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य । मैं आपसे उसके तृतीय लक्षण के सम्बन्ध में ही अभी कहँगा कि जिस आत्मा में अनुकंपा का भाव नहीं है, करुणा की धारा नहीं है, किसी पीड़ित और संतप्त आत्मा को देख कर सहानुभूति की स्फुरणा नहीं होती है, तो उसमें सम्यग्दर्शन का प्रादुर्भाव कैसे हो सकता है ? ६ तव सपर्यास्तवाज्ञा-परिपालनम् -वीतरागस्तुति ७ परस्परोपग्रहो जीवानाम् -तत्त्वार्थसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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