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अहिंसा को विधेयात्मक त्रिवेणी
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वशिष्ठ भारतीय तत्त्वचिंतन के प्रतिनिधि हैं, धर्मों के अधिकारी प्रवक्ता हैं । उनसे राम भारतीय लोकजीवन के प्रतिनिधि बन कर पूछते हैं- "महाराज ! ईश्वर की पूजा कैसे की जाती है ?"
राम के प्रश्न के उत्तर में वशिष्ठ ने कहा-"जिस किसी भी रूप में, जिस किसी भी साधन से, जिस किसी भी प्राणी की आत्मा को तृप्त करना, बस यही ईश्वर की पूजा है"3
महर्षि वशिष्ठ का यह उत्तर भारतीय चिंतन का एक चमकता हुआ पृष्ठ है । इस उत्तर ने ईश्वर-पूजा के सम्बन्ध में चली आई धारणाओं को नई दृष्टि दी है। मानव-चेतना को ही क्या, प्राणिमात्र की चेतना को, बिना किसी भेद-भाव के, बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के ईश्वरीय प्रतिष्ठा दी गई है। ईश्वर की पूजा एवं भक्ति को विराट् रूप में प्रस्तुत किया गया है । मानवसेवा ही प्रभुसेवा
पीड़ित की सेवा तुच्छ नहीं है। वह एक महती उदात्त भावस्थिति है। रोगी, दीन, दुःखी, पीड़ित की सेवा को भगवान् की पूजा-उपासना से कम नहीं समझना है; अपितु अधिक ही समझना है । यह सर्वाधिक पवित्र कर्त्तव्य है।
___ इस सन्दर्भ में भारतीय संस्कृति का यही स्वर, कुछ दूसरे रूप में महाश्रमण महावीर की वाणी से मुखरित हुआ है । गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा"भगवन् ! एक व्यक्ति आपकी सेवा करता है, अपना सर्वस्व आपके चरणों में समर्पित कर देता है, और एक दूसरा व्यक्ति है, जिसे ग्लान, रोगी एवं अन्य पीड़ितों की सेवा करते हुए आपकी सेवा में आने की फुरसत भी नहीं मिलती है तो इन दोनों में से आप किसको अच्छा मानेंगे, किसको धन्यवाद देंगे ?"
भगवान् ने कहा-"गौतम ! जो व्यक्ति ग्लान, रोगी एवं पीड़ितों की सेवा करता है, उसे मैं साधुवाद देता हूँ।"४
गौतम के मन को गुत्थी नहीं सुलझी, उन्होंने पुनः पूछा-"भगवन् ! ऐसा क्यों ? कहाँ आपकी पूर्ण विकसित भगवच्चेतना, महान् आत्मा ! और कहाँ वह सामान्य प्राणी ! आपकी तुलना में उसकी सेवा का क्या महत्त्व है ?"
प्रभु ने कहा-"गौतम ! मुझे अपनी देह की पूजा नहीं चाहिए । मैं तो सर्वसाधारण चैतन्य की सेवा को ही अपनी सेवा मानता हूँ। मेरी आज्ञा की आराधना ही मेरी आराधना है, मेरा दर्शन और मेरी सेवा-पूजा है।"५
३ "येन केन प्रकारेण, यस्य कस्याऽपि देहिनः
संतोष जनयेद् राम, तदेवेश्वरपूजनम् ॥"-योगवाशिष्ठ ४ जे गिलाणं पडियरइ, से धन्ने । -आवश्यक हारीभद्री टीका ५ "आणाराहणं दसणं खु जिणाणं"। , , ,
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