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________________ १४० अहिंसा-दर्शन सेवा : एक महत्त्वपूर्ण सद्गुण : ____ अनेक गुणों के कारण मनुष्य-जीवन की महत्ता मानी गई है, उसमें एक महत्त्वपूर्ण गुण है-सेवा, जो अहिंसा की विधेयात्मक त्रिवेणी का एक अंग है। एकदूसरे के प्रति सद्भाव, एक-दूसरे व्यक्तित्व का आदर, समस्याओं को सुलझाने में एकदूसरे का सहयोग, स्नेह और समर्पण-ये सब सेवा के रूप हैं, ये अहिंसा और दया के ही विभिन्न पथ हैं। भारतीय चिंतन ने एक बहुत बड़ी बात कही है। वह ईश्वर को मनुष्य के भीतर देखता है और मनुष्य की पूजा को ही ईश्वरपूजा मानता है। आप जिसे ईश्वर की पूजा कहते हैं, उस पूजा के ये विभिन्न माध्यम हैं। ___व्यक्ति जब अलग-अलग इकाइयों में बँटा होता है, तो उसकी चेतना खंडित व क्षुद्र होती है, किन्तु जब व्यक्ति अखण्ड इकाई के रूप में समष्टि के साथ एकाकार हो जाता है, समष्टि में समाहित हो जाता है, तो उसकी चेतना अखंड व व्यापक रूप धारण कर लेती है । बूंद बूंद जब तक अलग-अलग देखी जाती है, तब तक वह बूंद है, जब उसे सिंधु के साथ मिला दिया जाता है, तब बूंद सागर बन जाती है । व्यक्तिचेतना को जब समष्टिचेतना के साथ मिला दिया जाता है, तो उसमें ईश्वरीय रूप जागृत हो जाता है। मेरे विचार में मानवीय शक्तियों का जो अखण्ड रूप है, जो समष्टिगत चेतना है, वही ईश्वरीय रूप है। उस समष्टिगत चेतना की पूजा-सेवा ही ईश्वर-सेवा का प्रतीक है। समष्टि-चेतना-एक प्रकार से भावनात्मक चेतना है। यह तो सम्भव नहीं कि हम असंख्य-अगणित व्यक्तियों की व्यक्तिशः सेवा कर सकें, सेवा का यह व्यावहारिक रूप भी नहीं हैं । सागर में स्नान करने का मतलब यह नहीं होता कि सागर के सम्पूर्ण जल का स्पर्श किया जाए, हर बूद और हर लहर को छुआ जाए । सागर के एक कोने पर कहीं भी स्नान करने से, कहीं भी डुबकी लगाने से सागर-स्नान का महत्त्व मिल जाता है । क्योंकि सम्पूर्ण सागर के साथ उसका भावनात्मक सम्पर्क है । समष्टिचेतना से भी यही अभिप्राय है। सम्पूर्ण समष्टिचेतना के साथ हमारा एक भावनात्मक सम्पर्क है, एक अखंड सद्भाव है। हमारे संकल्पों में-'शिवमस्तु सर्वजगतः' का विद्युत्-प्रवाह दौड़ता है। किन्तु इन संकल्पों का प्रारम्भ तो हमें क्रमशः व्यक्ति, परिवार एवं समाज से ही करना होता है । व्यक्ति की सेवा करते हुए भी व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप में नहीं, बल्कि समष्टि-रूप में देख कर चलना-यह हमारे संकल्प की विराट्ता है। संकल्प में जब इतनी विराटता होती है, तभी व्यक्ति की सेवा, मानव की पूजा, ईश्वर-सेवा एवं ईश्वरपूजा का रूप ले सकती है। सेवा : मनुष्य को ईश्वररूप में देखने की दृष्टि रामायण में वशिष्ठ एवं राम का एक बड़ा महत्त्वपूर्ण संवाद आता है । महर्षि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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