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________________ १५० अहिंसा-दर्शन है, न समाज है । अतः वहाँ दूसरे को सहयोग देने जैसी स्थिति कहाँ है ? पशु-पक्षियों की स्थिति भी अज्ञान की काली चादर के नीचे ढंकी है। उन्हें भी क्या पता कि सेवा क्या होती है, और वह कैसे करनी चाहिए ? मानव-जीवन ही सेवा का आधारस्तम्भ है। मानव सामाजिक प्राणी है । वह शरीर के रूप में एक क्षुद्र इकाई अवश्य है, परन्तु भावना की दृष्टि से वह एक विराट रूप का धर्ता है। मानव के आसपास परिवार है, समाज है, राष्ट्र है और हैं धार्मिक परम्परा, संस्कृति एवं सभ्यता । मानव की सद्भावना उक्त विराट् जगत् में सर्वत्र व्याप्त है। सबका सुख उसका सुख है, और सबका दुःख उसका दुःख हैं। वह अपनी उदात्त भावना के माध्यम से अपना सुख दूसरों को बाँटता है, और दूसरों का दु:ख स्वयं बाँट लेता है । वह दुःख-सुख को बाँटता ही नहीं, अपितु दूसरों के लिए सुख का सृजन करता है, दुःख का परिहार करता है । दुःखमुक्ति हैं, ही भारतीय तत्त्वदर्शन का बीजमंत्र है। महर्षि कपिल यही बात कहते हैं ।२४ दुःख-मुक्ति स्वयं की ही नहीं, सब की अपेक्षित है। यही भारतीय जीवनदर्शन का सर्वोच्च ध्येय है। सेवा सर्वात्मवाद पर आधारित है। यह भारतीय साधना का महत्तम पुरुषार्थ है; जन-जीवन के समग्र दुःखों का सर्वाङ्गीण ध्वंस है। इस प्रकार अहिंसा की विधेयात्मक त्रिवेणी-समता, प्रेम और सेवा में डुबकी लगा लेने पर मानव आत्मा से परमात्मा बन जाता है, विश्व का सर्वोच्च वन्दनीय और पूजनीय बन जाता है। -सांख्यदर्शन २४ “अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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