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अहिंसा के दो पक्ष : प्रवृत्ति और निवृत्ति-२
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उसे नदी से निकालने के लिये भी नहीं गया, अतः बचाने में जल-जीवों की तथा अन्य मत्स्य आदि त्रसजीवों की जो हिंसा हुई है, उससे भी मैं पूर्णतया मुक्त रहा हूँ। अतएव मैं अपनी तटस्थता के कारण बचाने वाले से कहीं अधिक अहिंसक हूँ।"
"जो साधु तटस्थ नहीं रहा और साथी साधु को बचाने के लिये नदी में उतरा, वह एक प्राणी को तो अवश्य बचा लाया, किन्तु एक की रक्षा के लिये कितने प्राणियों की हिंसा का भागी हुआ ?"
इस प्रकार यह जटिल प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि उक्त प्रसंग पर क्या तटस्थ रहना आवश्यक है या प्रवृत्ति करना ? इस विषय में भगवान् महावीर का आदेश तो यह कहता है कि जब इस प्रकार की विषम परिस्थिति आ जाए तो साधु दूसरे दुर्घटनाग्रस्त साधु को निकाले और यदि साध्वी डूब रही है तो उसको भी निकाले किन्तु तटस्थ होकर न खड़ा रहे। इस प्रकार जैनागम का मूल उल्लेख है। इसका मुख्य कारण यह है कि हिंसा और अहिंसा का जो स्थूलरूप वर्णित है, कर्तव्य उससे भी कहीं ऊँचा है।
___ कोई प्राणी हमारे सामने मर रहा है। सम्भव है, उस समय बाह्यरूप में हठात् निवृत्ति कर भी ली जाय; परन्तु ऐसे अवसर पर बचाने के संकल्प स्वभावतः आया ही करते हैं । फिर भी हम यदि उनकी बलात् उपेक्षा ही करते हैं, रक्षात्मक प्रवृत्ति का प्रयोग नहीं करते हैं तो हमारे मन की दया कुचली जाती है और इस प्रकार अपने द्वारा अपने आत्मा की एक बहुत बड़ी हिंसा हो जाती है। इस आत्महिंसा को रोकना और उससे बचना अत्यधिक आवश्यक है। इसके अतिरिक्त यह तो स्पष्ट ही है कि बचाने के लिये पानी में प्रवेश करने वाले का संकल्प जल के जीवों को मारने का बिलकुल नहीं था, उसका एकमात्र इरादा तो डूबते हुए साधु को बचाने का ही था ।
जैन-धर्म ने तटस्थता को महत्त्व अवश्य दिया है, किन्तु वह हर जगह और हर परिस्थिति में तटस्थ रहने का आदेश कदापि नहीं देता।
साधु को बचाने के लिये जल में प्रवेश करने वाले सहधर्मी साधु को पुण्यप्रकृति का बंध हुआ या पाप-प्रकृति का ? अथवा उसे अन्ततः निर्जरा ही हुई ? यह बात तो ध्यान में रहनी ही चाहिए कि जब अन्तःकरण में अनुकम्पा जगती है और करुणा की लहर उत्पन्न होती है, तब मनुष्य दयाभाव में गद्गद हो जाता है और जब वह पूर्णतया गद्गद हो जाता है, तब असंख्य-असंख्यगुणी निर्जरा कर लेता है। जब ऐसी स्थिति आती है तब हमारी भूमिका शुभसंकल्प में केन्द्रित होती है और जब हम तन्मयता के साथ किसी शुभसंकल्प में लीन होते हैं, तब निर्जरा के साथ-साथ
६ देखिये बृहत्कल्पसूत्र ६, ८ । ७ पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट करना, निर्जरा है।
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