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________________ १२६ अहिंसा-दर्शन तटस्थता या बचाव ____एक आदमी किसी को मार रहा है या कोई स्वयं अपनी आत्म-हत्या कर रहा है। इसी समय दो आदमी आ पहुँचते हैं। उनमें से एक आदमी तो उस दीन-हीन की रक्षा के लिए तत्पर होता है और दूसरा तटस्थ हो कर अलग खड़ा रह जाता है । ऐसी स्थिति में तटस्थ खड़े रहने वाले को कहाँ पाप लग रहा है ? वह स्वयं तो किसी को मार ही नहीं रहा है, जिससे कि उसे पाप लगे, वह तो केवल तटस्थभाव से खड़ा है। यदि दूसरा आदमी तटस्थ न रह कर बचाने की प्रवृत्ति करता है तो यहाँ भी प्रश्न आता है-तटस्थ रहने वाले निवृत्तिपरायण व्यक्ति को अधिक लाभ है या प्रवृत्ति करने वाले को ? __ जो लोग जीवन के हर क्षेत्र में तटस्थ ही रहना चाहते हैं, वे कदाचित् यही कहेंगे कि जो तटस्थ रहा है, उसने पाप नहीं किया और उसे हिंसा भी नहीं लगी। स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि में तटस्थ रहना-क्रियाहीन जीवन व्यतीत करना ही जीवन का शुभ लक्ष्य है और प्रवृत्ति करना अशुभ लक्ष्य । किन्तु उनसे पूछा जा सकता है कि जैन-धर्म में जो दया या करुणा की बात कही गई है, क्या वह केवल तटस्थ रहने की बात है ? उदाहरण के लिए एक साधु नदी के किनारे चल रहा है, जाते हुए फिसल गया, और नदी के प्रवाह में गिर कर डूबने लगा। उसके साथी दो साधु किनारे पर खड़े हैं । उनमें से एक साधु जो किनारे पर खड़ा है, वह तटस्थभाव की मुद्रा में खड़ा है । इस प्रसंग पर वह यह कहता है--मैंने धक्का नहीं दिया, मैंने संकल्प भी नहीं किया कि वह गिरे। वह गिरने वाला तो अपने आप गिर गया है और डूबने लगा है-इसमें मेरा क्या दोष ? अस्तु, मैं तो अन्त तक तटस्थ ही रहूँगा। यदि पानी में जाऊँगा तो जल के जीवों की हिंसा होगी, और जल में रहने वाले छोटे-बड़े अनेक त्रस' जीवों की हिंसा भी होगी। ऐसा सोचकर वह तटस्थ खड़ा रहता है । परन्तु दूसरा साधु उसे बचाने के लिए नदी में उतर पड़ता है । डूबने वाला साधु अस्त-व्यस्त दशा में है । उसे बचाने की कोशिश करते समय पानी में तो हलचल अवश्य होगी और कितनी ही मछलियाँ तथा दूसरे अनेक जीव भयभीत एवं परेशान भी होंगे और कुछ तो मर भी जायेंगे। फिर भी वह उस डूबने वाले साधु को नदी से बाहर निकाल कर किनारे पर ले आता है । अब प्रश्न यह उठता है कि कौन-से साधु को लाभ हुआ ? अर्थात् —जो साधु अन्त तक तटस्थ था, वह लाभ में रहा, या जो तटस्थ न रह कर साथी साधु को बचाने के लिये नदी में उतरा, वह लाभ में रहा ? तटस्थ रहने वाला साधु कहता है-"नदी में गिरने वाले साथी साधु के पतन में मेरा कोई निमित्त नहीं था, अतः मैं गिराने के पाप का भागी नहीं हूँ । साथ ही मैं ५ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीव स्थावर हैं। द्वीन्द्रिय से ले कर पंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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