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अहिंसा के दो पक्ष : प्रवृत्ति और निवृत्ति - २
कि सर्वसाधारण जनता के स्वास्थ्य को हानि न पहुँचे, इधर-उधर गन्दगी न फैले, किसी को भी कुरुचि एवं घृणा का भाव न हो ।
देखिए, जैनाचार्य इस समिति की व्याख्या करते हैं कि समितियाँ प्रवृत्ति-रूप भी हैं और निवृत्ति रूप भी हैं । जहाँ समिति है, वहाँ गुप्ति भी होती हैं । ४
उपयुक्त कथन का अभिप्राय यही है कि जीवन के क्षेत्र में चाहे साधु हो या श्रावक; दोनों के लिए प्रवृत्ति और निवृत्ति यथावसर समान रूप में आवश्यक हैं । अशुभ आचरण एवं अशुभ संकल्प से अलग रह कर शुभ में प्रवृत्ति करनी ही होगी । यदि हम शुभ सोचेंगे, शुभ बोलेंगे और आचरण भी शुभ करेंगे तो इस रूप में हमारी प्रवृत्ति और निवृत्ति साथ-साथ चलेंगी । हमें यह भूल नहीं जाना चाहिए कि हमारे अशुभ कार्यक्रम में निवृत्ति का लक्ष्य शुभ में प्रवृत्ति करना है; और शुभकार्य में प्रवृत्ति का ध्येय अशुभ से निवृत्त होना है । जहाँ हजारों 'ना' हैं, वहाँ एक 'हाँ' भी लगा हुआ है । अतएव प्रवृत्ति और निवृत्ति परस्परनिरपेक्ष हो कर नहीं रह सकती, और वस्तुतः रहना भी नहीं चाहिए। एक उदाहरण देखिए
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जब कोई आदमी घोड़े पर चढ़ता है, तो वह चलने के लिए ही चढ़ता है, इसलिए नहीं कि घोड़े की पीठ पर ही जम जाए। वह घोड़े पर चढ़ता है और उसे गति भी देता है, किन्तु साथ ही घोड़े की लगाम भी पकड़ लेता है । उसे जहाँ तक चलना है, वहीं तक चलता है और जहाँ खड़े होने की आवश्यकता महसूस होती है, वहाँ खड़ा भी हो जाता है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि घोड़े पर चढ़ कर चलना प्रवृत्ति है, और जरूरत होने पर खड़ा हो जाना निवृत्ति भी है ।
इस सम्बन्ध में एक उदाहरण लीजिए --- किसी सेठ ने यदि ऐसी मोटर ले ली है कि एक बार स्टार्ट कर देने पर वह स्वच्छन्द गति से ऐसी चलती है कि कहीं पर कभी रुकती ही नहीं है, तब क्या ऐसी विचित्र मोटर में कोई बैठेगा ? निश्चित है, कोई नहीं । सामान्यतः मोटर ऐसी होनी चाहिए कि वह चले तो अवश्य, किन्तु जरूरत के समय उसे खड़ा भी किया जा सके और मार्ग की स्थिति के अनुसार धीमी भी की जा सके । निस्सन्देह उसी में आप बैठना पसन्द करेंगे। हमारा जीवन भी एक प्रकार का घोड़ा अथवा गाड़ी है, जिसे समय पर चलाना भी चाहिए और समय पर रोकना भी चाहिए । जीवन की गति न तो उन्मुक्त, मर्यादाहीन एवं उच्छृंखल ही होनी चाहिए, और न सर्वथा निष्क्रिय ही ।
जैन-धर्म ने यह एक महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है, जिससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि - जहाँ तक शुभ में प्रवृत्ति का अंश है वहाँ प्रवृत्ति है, और जहाँ अशुभ से निवृत्ति का अंश है, वहाँ निवृत्ति है । प्रवृत्ति और निवृत्ति; दोनों ही जगह अहिंसा की सुगन्ध महकती है ।
४ पविचाराऽपविचाराओ समिईओ
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