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________________ १२२ अहिंसा-दर्शन अहिंसक प्रवृत्ति के बिना समाज का कोई कार्य चल नहीं सकता, क्योंकि प्रवृत्तिशून्य अहिंसा समाज में जड़ता पैदा कर देती है। प्रवृत्तिशून्य अहिंसा से मानव में असामाजिकता ही पैदा होगी। ___यदि आपने कोरी निवृत्ति के चक्कर में आ कर शरीर को काबू में कर भी लिया तो क्या हुआ? मन तो अपनी स्वभावगत चंचलता के अनुसार कुछ-न-कुछ हरकत करता ही रहेगा । फिर मन को कहाँ ले जाएँगे ? इसका अर्थ हुआ कि-सर्वप्रथम मन को साधना पड़ेगा । शास्त्रकार भी यही कहते हैं कि पहले मन को ही एकाग्र करो, मन को ही साधो । केवल मन को ही सांसारिक विषयों से अलग करो। चाहे जीवन भले ही संसार में उचित प्रवृत्ति क्यों न करे। किन्तु जीवन की उचित प्रवृत्ति कुछ और है, और मन की उच्छङ्खल प्रवृत्ति दूसरी वस्तु है। अंकुश तो मन पर लगा रहना चाहिए। यदि मन पर काबू पा लिया, तो फिर कहीं भी भागने की जरूरत नहीं है। कुछ लोगों का कथन है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों एक साथ नहीं रह सकती। ऐसी दशा में कोई ठहरे या आगे चले ? यदि आप कहें कि चलो भी और ठहरो भी, तो दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते । दिन और रात, एक साथ नहीं रह सकते हैं । गर्मी और सर्दी एक जगह कैसे रह सकती हैं ? अर्थात् दो परस्पर विरोधी चीजों को एक साथ कैसे रखा जा सकता है ? किन्तु जैन-दर्शन के पास एक विशिष्ट प्रकार की चिन्तनप्रणाली है और उस अनुपम चिन्तनपद्धति से विरोधी मालूम होने वाली चीजें भी अविरोधी हो जाती हैं। जैसे दूसरी वस्तुओं के अनेक अंश होते हैं, उसी प्रकार अहिंसा के भी अनेक अंश हैं । अहिंसा का एक अंश प्रवृत्ति है, और दूसरा अंश है निवृत्ति । ये दोनों अंश सदा एक साथ ही रहते हैं । एक-दूसरे को छोड़ कर अलग-अलग नहीं रह सकते। जब आप प्रवृत्ति कर रहे हैं तो उस समय निवृत्ति उसके साथ अवश्य होती है। यदि प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति नहीं है तो उसका कोई मूल्य नहीं है । ऐसी प्रवृत्ति बंधन में डाल देगी। प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति का संग होने पर ही प्रवृत्ति का वास्तविक मूल्य है । प्रवृत्ति-निवृत्ति : अहिंसारूपी सिक्के के दो पहलू ___ जैनदर्शन में अहिंसा के दो पक्ष हैं। 'नहीं मारना' यह उसका एक पहलू है और उसका दूसरा पहलू है-मैत्रीकरुणा और सेवा । यदि हम अहिंसा के सिर्फ नकारात्मक पहलू पर ही सोचें तो यह अहिंसा की अधूरी समझ होगी । सम्पूर्ण अहिंसा की साधना के लिए प्राणिमात्र के साथ मैत्री सम्बन्ध रखना, उसकी सेवा करना, उसे कष्ट से मुक्त करना आदि विधेयात्मक पक्ष पर भी समुचित विचार करना होगा। जैनागमों में जहाँ अहिंसा के ६० एकार्थक नाम दिये गये हैं, वहाँ इसे दया, रक्षा, १ दया, खंती, बोही, रक्खा, समिई, जण्णो अभओ आदि -प्रश्नव्याकरणसूत्र, प्रथम संवरद्वार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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