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________________ १२ अहिंसा के दो पक्ष : प्रवृत्ति और निवृत्ति-२ 'अहिंसा' शब्द के साथ जो निषेध जुड़ा हुआ है, उसे देखकर साधारण लोग और कभी-कभी कुछ विशिष्ट विचारक भी भ्रम में पड़ जाते हैं । वे समझ बैठते हैं कि 'अहिंसा' शब्द निषेध-वाचक है, और इसी कारण वे अहिंसा का अर्थ भी केवल 'निवृत्तिपरक' ही मान लेते हैं। इस भ्रम ने अतीतकाल में भी अनेक अनर्थ उत्पन्न किए हैं और आज भी वह अनेक लोगों को चक्कर में डाल रहा है । अतएव अहिंसा की विवेचना करते समय यह देख लेना नितान्त आवश्यक है कि क्या वास्तव में अहिंसा कोरा निषेध ही है, और अहिंसा के साधक का कर्तव्य ‘कुछ न करने में ही समाप्त हो जाता है; अथवा अहिंसा का कोई विधि-रूप भी है ? और उसके अनुसार अहिंसा के साधक के लिए कुछ करना भी आवश्यक है ? वास्तविक अहिंसा जैन धर्म की वास्तविक अहिंसा क्या है ? क्या वह अकेली निवृत्ति ही है ? अर्थात्--क्या वह अलग खड़े रहने के रूप में ही है ? इधर से भागे तो उधर खड़े हो गए, और उधर से भागे तो इधर आ कर खड़े हो गए ? तब क्या साधक सर्वथा अलग-अलग कोने में खड़ा रह कर जीवन गुजार दें ? यदि अहिंसा को कहीं से अलग हटना है, तो अलग हटने के साथ-साथ कहीं खड़ा भी तो रहना है या नहीं ? कहीं प्रवृत्ति भी करनी है या नहीं ? अहिंसा का साधक जीवन के मैदान में कुछ अच्छे काम कर सकता है या नहीं ? आज का भ्रान्त संसार इन प्रश्नों का स्पष्ट उत्तर चाहता है। अहिंसा के साधकों को उक्त प्रश्नों का स्पष्ट उत्तर देना होगा, और निष्पक्ष शब्दों में देना होगा। मौन साधने से काम नहीं चलेगा। मानव को मानवता के उद्धार एवं कल्याण के लिए कोई ठोस कदम उठाना ही पड़ेगा। क्योंकि मानव एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में जन्म लेता है और समाज में ही रह कर अपना सांस्कृतिक विकास एवं अभ्युदय करता है । उस अभ्युदय के बदले वह समाज को कुछ देता भी है। प्रवृत्तिरूप धर्म के द्वारा समाजसेवा करना उसका प्रथम कर्तव्य है । जो अहिंसा जीवन के कार्य-क्षेत्र से अलग हो जाती है और निष्क्रिय हो कर हर जगह से भागना ही चाहती है, जिस अहिंसा का साधक भाग कर कोने में दुबक जाता है और यह कहता है--'मैं तो तटस्थ हूँ और अहिंसा का अच्छी तरह पालन कर रहा हूँ !' तब क्या ऐसी अहिंसा किसी भी रूप में उपयोगी हो सकती है ? यह अहिंसा की निष्क्रिय वृत्ति है और इसके साधक के जीवन में केवल निष्क्रियता ही आ सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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