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________________ अहिंसा के दो पक्ष : प्रवृत्ति और निवृत्ति-२ १२३ अभय आदि के नाम से भी अभिहित की गई है । यदि प्रवृत्ति नहीं है तो अकेली निवृत्ति का न तो कोई मूल्य है और न ही कोई अस्तित्व ही। इसीलिए साधक के चारित्र की जो व्याख्या की गई है, उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति-दोनों को समान स्थान दिया गया है । चारित्र न तो एकान्त प्रवृत्तिरूप है, और न एकान्त निवृत्तिरूप । इस सम्बन्ध में कहा गया है-"अशुभ कार्यों से, बुरे संकल्पों से तथा कुत्सित आचरणों से निवृत्ति करना और शुभ में प्रवृत्ति करना तथा सत्कर्मों का आचरण करना ही चारित्र है ।२ साधक एक ओर से निवृत्ति (विरति) करे और दूसरी ओर से प्रवृत्ति करे। असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करना चाहिए ।"3 असदाचरण से निवृत्त बनो और सदाचरण में प्रवृत्ति करो; यही प्रवृत्ति और निवृत्ति की सुन्दर एवं पूर्ण विवेचना है । ' अनुकम्पादान, अभयदान, सेवा आदि-आदि अहिंसा के प्रवृत्तिप्रधान रूप हैं। यदि अहिंसा केवल निवृत्तिपरक ही होती तो जैनाचार्य इस प्रकार का कथन कथमपि नहीं करते । 'अहिंसा' शब्द भाषा-शास्त्र की दृष्टि से निषेधवाचक अवश्य है, इस कारण बहुत-से व्यक्ति इस भ्रम में फंस जाते हैं कि अहिंसा केवल निवृत्तिपरक है। किन्तु गहन चिन्तन करने के पश्चात् यह तथ्य स्पष्ट हुए बिना नहीं रहेगा कि अहिंसा के अनेक पहलू हैं, अनेक अंग हैं। अतः प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में अहिंसा समाहित है । प्रवृत्ति-निवृत्ति दोनों में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । एक कार्य में जहाँ प्रवृत्ति हो रही है, वहाँ दूसरे कार्य से निवृत्ति भी होती है। जो केवल निवृत्ति को ही प्रधान मान कर चलता है, वह अहिंसा की आत्मा को परख ही नहीं सकता। वह अहिंसा की सम्पूर्ण साधना नहीं कर सकता। एक-दूसरे के अभाव में अहिंसा अपूर्ण है। यदि अहिंसा के इन दोनों पहलुओं को न समझ सके तो अहिंसा की वास्तविकता से हम बहुत दूर भटक जायेंगे। ___ जैनश्रमण के उत्तरगुणों में चारित्र के सन्दर्भ में ५ समितियों और ३ गुप्तियों का विधान है। समिति की मर्यादा प्रवृत्तिपरक है और गुप्ति की मर्यादाएँ निवृत्तिपरक । अत: गुप्ति का अर्थ है--निवृत्ति और समिति का अर्थ है-प्रवृत्ति । इससे भी स्पष्ट है कि प्रवृत्ति-निवृत्ति दोनों अहिंसारूपी सिक्के के दो पहलू हैं। ईर्यासमिति का अर्थ है-चलना । यहाँ चलने से इन्कार नहीं किया गया; किन्तु अविवेक से या अनुचितरूप से चलना ठीक नहीं है। जहाँ हजारों 'ना' हैं, वहाँ एक 'हाँ' भी है । चलने के साथ यदि हजारों 'ना' हैं, तो वहाँ एक 'हाँ' भी निश्चित २ 'असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं ।' -आचार्य नेमिचन्द्र ३ “एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं । असंजमे नियत्तिं ना संजमे य पवत्तणं ॥ -उत्तराध्ययन ३११२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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