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________________ अहिंसा की त्रिपुटी १०६ के प्रति जज के हृदय में घृणा या द्वेष न होने पर भी उसे मौत की सजा सुनानी पड़ती है । अपराधी जल्लाद के सुपुर्द कर दिया जाता है । जल्लाद उसे ले कर चलता है । वह सोचता है-"इसने गुनाह किया है, फलतः समाज की ओर से सजा देने का उत्तरदायित्व मेरे ऊपर आया है। इसके पाप का फल इसके सामने आ रहा है। मैं तो केवल आज्ञा-पालन के लिए हूँ। मैं फांसी देने वाला कौन ? फाँसी तो इसके दुराचरण ही दे रहे हैं।" यहाँ एक हिंसा कर रहा है, दूसरा करवा रहा है और हजारों दर्शक फाँसी पर झूलते अपराधी को देखने के लिए जमा हैं। उनमें से कुछ कहते हैं-"अच्छा हुआ जालिम पकड़ा गया ! अब देर क्यों हो रही है ? जल्दी ही तख्ता क्यों नहीं हटा दिया जाता ?" और इस खुशी में वे उछलते-कूदते हैं । अब देखना यह है कि न्यायाधीश, जल्लाद और दर्शकों में से कौन अधिक पाप बाँध रहा है ? जब मनोवृत्ति से ही पाप का गहरा सम्बन्ध है तो स्पष्ट है कि यद्यपि जल्लाद फांसी दे रहा है और न्यायाधीश दिला रहा है। फिर भी उन दोनों की अपेक्षा दर्शक अपनी क्रूर मनोवृत्ति के कारण अधिक पाप का बन्धन कर लेते हैं। न्यायाधीश और जल्लाद, यदि अन्दर में पूर्ण तटस्थ रह सकें, एकमात्र कर्त्तव्य-पालन की ही भूमिका पर खड़े रहें, व्यक्तिगत घृणा का स्पर्श भी मन में न होने दें, तो संभव है उनको पाप का स्पर्शमात्र भी न हो । परन्तु विवेकहीन दर्शक व्यक्तिगत घणा की दलदल में फंसे हुए हैं, अतः निश्चय ही वे पाप की तीव्रता से मलिन हो रहे हैं। इस प्रकार जैनधर्म की विचारधारा इकहरी नहीं है । वह अनेकान्तदृष्टि से युक्त है । किन्तु कुछ लोगों ने परिस्थिति-विशेष का उचित विचार न कर, मनोभूमिका को ठीक तरह से न परखा और विवेक-अविवेक का वास्तविक विवेक भुला कर, एकान्त समझ लिया है कि करने या करवाने में ही अधिक पाप है ! किन्तु जो जैन-धर्म की अनेकान्तदृष्टि को समझ लेता है, वह कभी एकान्त का आग्रही नहीं बनता । कृत, कारित और अनुमोदित के पाप की न्यूनाधिकता को समझने के लिए अनेकान्त-दृष्टि का प्रयोग करना आवश्यक है । साथ ही यह भी स्मरण रखना आवश्यक है कि पाप की अधिकता या हीनता का प्रधान केन्द्र-बिन्दु यथाक्रम विवेक का न होना और होना ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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