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________________ १०८ अहिंसा-दर्शन हिटलर : महान् हिंसक ' जो हिटलर विश्व-युद्ध की भयंकर ज्वाला में भस्म हो गया, कहा जाता हैउसने युद्ध में अपने हाथ से एक भी गोली नहीं चलाई और एक भी सैनिक का अपने हाथ से खून नहीं बहाया । वह फौजों को ही लड़ाता रहा। तब क्या उसे पाप नहीं लगा या कम लगा ? क्या पाप की गठरी केवल लड़ने वाले सैनिकों के ही सिर लदती है ? हिटलर भी कह सकता था-"मैं तो अहिंसक हूँ। मैंने लड़ाई नहीं लड़ी, मैंने चाकू भी नहीं चलाया, खून की एक बूंद भी नहीं बहाई।" गाँव के गाँव नष्ट हो गए, शहर के शहर तबाह हो गए। फिर भी यदि हिटलर या स्टालिन यह कहें कि "हम तो लड़वाने वाले थे, लड़ने वाले नहीं । पाप लड़ने वालों को लगता है, लड़वाने वालों को नहीं" । क्या उनकी यह दलील किसी के दिल पर असर कर सकती है ? क्या कोई भी समझदार इस तर्क को स्वीकार कर सकेगा ? नहीं। वे खुद लड़े होते तो वहाँ शक्ति सीमित होती । जब दूसरों को लड़वाया, तभी लाखों-करोड़ों आदमी इकट्ठ किये गए, महीनों और वर्षों तक लड़ाई भी जारी रही। इस प्रकार स्वयं न लड़ कर दूसरों को लड़वाने के द्वारा युद्ध करने में बहुत विराट् हिंसा सामने खड़ी हो जाती है । इन सब बातों पर गम्भीरता से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म ने कहीं पर गृह-कार्य आदि दूसरों से करवाने की अपेक्षा स्वयं कर लेने में कम पाप माना है। कहीं करने की अपेक्षा करवाने में कम, और कहीं करने-करवाने की अपेक्षा अनुमोदन में कम पाप स्वीकार किया है । ये ऐसे दृष्टिकोण हैं, जिनकी सचाई चिन्तन की गहरी डुबकी लगाने पर ही स्पष्ट होती है, अन्यथा नहीं। एक जज है । कत्ल का मुकदमा उसके सामने है। वह विचारों की गहराई में डुबकियां लगाता है और निरन्तर सोचता है । अपने कर्तव्य में किसी प्रकार की अवज्ञा भी नहीं करता है। पुलिस अभियुक्त को पकड़ कर लाती है। वह चाहे वास्तविक अपराधी को लाई है, अथवा छान-बीन किये बिना ही किसी निरपराध को मौत के घाट उतारने के लिए पकड़ लाई है। किन्तु जज विचार करता है-"अपराधी भले ही छूट जाये, किन्तु किसी निरपराध को दण्ड नहीं मिलना चाहिए। जज का सिंहासन न्याय के अनुसार केवल दण्ड देने के लिए ही नहीं है, अपितु निरपराध को दण्ड से बचाने के लिए भी है।" इसलिए वकीलों की सहायता से खूब अच्छी तरह सोच-विचार कर जज ने छानबीन की। अभियुक्त अपराधी सिद्ध हुआ और उसे कानून के अनुसार दण्ड भी मिला। यहाँ विचार करना है कि अपराधी को दण्ड तो मिला, किन्तु क्या उसके प्रति जज का कोई व्यक्तिगत द्वेष था ? नहीं ! वह समाज का कानून अपराधी के सामने रखता है कि "तुमने अपना जीवन बेहद विकृत बना लिया है, अतः समाज नहीं चाहता कि तुम उसमें रहो । अब तुम्हें समाज से विदा हो जाना चाहिए।" इस प्रकार अपराधी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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