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________________ अहिंसा के दो पक्ष : प्रवृत्ति और निवृत्ति-१११ अहिंसा एक व्यापक और विराट् तत्त्व है। किसी की हिंसा न करना ही अहिंसा नहीं है, यह तो अहिंसा का एक प्राथमिक निवृत्ति-निषेध रूप है । अहिंसा की धारा इतने में भी रुद्ध नहीं है। वह निषेध (निवृत्ति) की भूमि पर विधि (प्रवृत्ति) का रूप ले कर आगे बढ़ती है और इस विधि में ही उसकी सार्थकता है । भगवान् महावीर की अहिंसा एक ओर से प्राणिमात्र के प्रति सेवा, दया, करुणा और क्षमा सिखाती है, पीड़ितजनों की पीड़ा दूर करने, उन्हें उचित सहयोग एवं सहकार देने का पाठ पढ़ाती है, अपने प्राप्त से स्वयं जीओ और दूसरों को अर्पण करके उन्हें जिलाओ की बात कहती है, वहाँ दूसरी ओर से वह कहती है-किसी को कष्ट, दुःख या पीड़ा न पहुँचाओ, किसी को मारो-पीटो या सताओ मत, न किसी से वैर, द्वेष रखो, न बुरा व कठोर बोलो और न अशुभ चिन्तन ही करो। इस प्रकार महावीर की अहिंसा न एकांत निवृत्तिपरक है और न एकान्त प्रवृत्तिपरक । बहुत से लोग अहिंसाशब्द देख कर निवृत्तरूप ही होने की भ्रान्त धारणा बना लेते हैं, कि हिंसा न करो, किसी को मारो मत, झूठ न बोलो, चोरी न करो, व्यभिचार न करो, अन्याय और अत्याचार न करो। जीवन के व्यवहारक्षेत्र से आगे बढ़ कर जब वह अन्दर के भावजगत् को छूता है, तो क्रोध न करने को कहता है, माया और लोभ न करने का उपदेश करता है । अहंकार और मात्सर्य से भी निवृत्त होने की प्रेरणा देता है। इस प्रकार जहाँ-तहाँ नकार ही नकार खड़े हैं, निषेध की ही घोषणा सुनाई देती है, इन्कार की ही आवाज उठ रही है । यह सब निवृत्ति का उपदेश है। इस प्रकार जिसकी आधारशिला निवृत्ति है, वह 'न करने के लिए' तो कहता है, किन्तु 'करने के लिए' कुछ नहीं कहता । मनुष्य के समक्ष परिवार, समाज और राष्ट्र का उत्तरदायित्व है, सेवा का कर्मक्षेत्र है, किन्तु निवृत्तिपरक धर्म इस ओर से उदासीन है। आज के निवृत्तिमार्गी कहते भी हैं कि समाज से हमें क्या लेना-देना है ? वह सुधरे या बिगड़े, हमें इससे क्या ? ये सब भ्रान्तियाँ जैन-दर्शन के केवल एक रूप को, एक पहलू को ही ले कर हैं । यदि दूसरे पहलू को भी देखा होता, तो यह सब कुछ भ्रान्तियाँ भी न होतीं। निवृत्ति का हार्द ___यह सत्य है कि महावीर ने निवृत्ति का उच्चतम आदर्श उपस्थित किया है । उनके प्रत्येक चिन्तन-चित्र में निवृत्ति का स्वणिम रंग भरा हुआ है। किन्तु दृष्टि जरा साफ हो, स्वच्छ हो और भावग्राही हो तो रंगों का ठीक विश्लेषण करने पर यह समझा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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