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________________ १०४ . अहिंसा-दर्शन ध्यान नहीं है। यह शिष्य गोचरी में दोषों का भंडार ही ले कर आएगा । इस प्रकार स्वयं करने की अपेक्षा दूसरों से करवाने में ज्यादा हिंसा हो जाती है। पाप को न्यूनाधिकता भारतीय संस्कृति और उसमें भी विशेषतः जैन-धर्म की यह शिक्षा है कि हर काम विवेक से करना चाहिए । विवेक और चिन्तन हर काम में चालू रहना चाहिए । इस प्रकार किसी कार्य को स्वयं करने और दूसरों से करवाने में पाप की न्यूनाधिकता विवेक और अविवेक पर निर्भर करती है। विवेक के साथ 'स्वयं' करने में कम पाप है, जबकि अविवेकपूर्वक दूसरे अयोग्य व्यक्ति से कराने में अधिक पाप है। दूसरी ओर अविवेक से साथ स्वयं करने में अधिक पाप है, जबकि उसी कार्य को विवेक के साथ दूसरे योग्य व्यक्ति से कराने में कम पाप है। यह जैन-धर्म की अनेकान्तदृष्टि है। तीसरा करण अनुमोदन है। एक आदमी स्वयं काम नहीं करता, दूसरों से करवाता भी नहीं, केवल काम करने वालों की सराहना करता है । कहीं लड़ाई हुई, इतने जोर से कि सिर फट गये। एक तमाशबीन बाजार के एक सिरे से दूसरे सिरे तक लड़ाई और सिरफुटौब्वल का समर्थन करता जाता है । वह कहता है-'वाह ! आज बिना पैसे के कैसा बढ़िया तमाशा देखने को मिला! बड़ा मजा आया। बहुत अच्छा हुआ कि उसका सिर फटा और उसकी हड्डी का कचूमर निकल गया।' यह ध्यान देने की बात है—ऐसा कह कर लड़ाई का अनुमोदन करने वाला कितना कर्म-बन्ध कर रहा है ? वह कितने घोर अज्ञान में फंस रहा है ? उसने स्वयं लड़ाई की नहीं, दूसरों से करवाई भी नहीं, फिर भी सम्भव है, वह लड़ने वालों से भी अधिक कर्म बाँध ले । लड़ने वाले आवेश में लड़े हैं । उनकी हिंसा विरोधी की और अपराधी की हिंसा हो सकती है, और सप्रयोजन भी हो सकती है। किन्तु अनुमोदन करने वाला व्यर्थ ही पाप की गठरी सिर पर लाद रहा है। अपराधी की हिंसा तो श्रावक के लिए क्षम्य हो सकती है, परन्तु इस प्रकार के अनुमोदन की व्यर्थ हिंसा श्रावक के लिए कथमपि क्षम्य नहीं है । यहाँ करने और कराने की अपेक्षा अनुमोदन में अधिक हिंसा है। __जीवन में कोई व्यक्ति एकान्त पक्ष को ले कर नहीं चल सकता, क्योंकि कभी करने में तो कभी करवाने में और कभी अनुमोदन में ज्यादा पाप हो जाता है। एक भाई की बात मेरे ध्यान में है। उसने अपने एक नौकर को फल लाने के लिए भेजा । नौकर ग्रामीण था, बालक था, अज्ञान था । वह सड़े हुए फल ले आया। वह ले तो आया, किन्तु उस पर हजार-हजार गालियाँ पड़ी। उस भाई ने स्वयं बतलाया कि 'मुझे उस समय इतना आवेश आया कि दो-चार चाँटे भी उसके जड़ दिये।' मैंने उस भाई से कहा-'तुमने ऐसे बालक को भेजा ही क्यों ? जिसे ज्ञान नहीं था, खरीदने के विषय में जिसे कुछ भी विवेक नहीं था। अब कहते हो, गुस्सा आ गया, किन्तु उस समय अपनी गलती नहीं मालूम की कि मैं किसे भेज रहा हूँ ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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