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________________ अहिंसा को त्रिपुटी १०५ तुम्हारी अपनी गलती से ही गुस्सा, आवेश और मारने-पीटने की मनोवृत्ति जगी, और फल फैकने पड़े । दोष तुम्हारा था, किसी और का नहीं । तुम्हारे ही कारण इतना बवण्डर मचा । यदि विवेकपूर्वक तुम स्वयं काम करते तो इतनी गलत चीजें क्यों होतीं तुम्हें क्यों घृणा और आवेश होता ? और मार-पीट भी क्यों करनी पड़ती ?' जीवन में इस प्रकार की जो साधारण घटनाएँ होती हैं, उन्हीं से जीवन का निर्णय-सूत्र तैयार होता है और समझा जाता है कि विवेकपूर्वक काम करने से पाप कम होता है। अनजान से काम कराया तो उसने न जाने कितने जीवों की हिंसा की। इसके अतिरिक्त अपने और नौकर के मन में आवेश, घृणा आदि के कारण मानसिक हिंसा या भाव-हिंसा भी हुई। जीवन के ये दृष्टिकोण कुछ नये नहीं हैं, बहुत पुराने युग से यों ही चलते आ रहे हैं । इस सम्बन्ध में जैन-धर्म के इतिहास-सम्बन्धी कुछ पुराने पन्ने मैं आपके सामने ला रहा हूँ, जिन पर विचार करने से पता चलेगा कि जैन संस्कृति ने जीवन में कभी कुछ ऐसे प्रश्न छेड़े हैं, जहाँ कहीं मनुष्य कराने की अपेक्षा करने में दोषी समझा जाता है और कहीं वह करने की अपेक्षा कराने में ज्यादा पाप का भागी होता है। करुणापति बाहुबली जैन इतिहास का पहला अध्याय भगवान् ऋषभदेव से प्रारम्भ होता है । वहीं से जीवन की कला उद्भूत होती है । भगवान् ऋष मदेव के समय में ही उनके बड़े पुत्र भरत के चक्रवर्ती बनने का प्रसंग आया । वे लड़ाइयाँ लड़ते रहे । भारत की समस्त भूमि पर उनका स्वामित्व स्थापित हो गया । किन्तु उनके भाई ने उनका आधिपत्य स्वीकार नहीं किया, तब भरत ने सोचा-जब तक भाई भी मेरे सेनाचक्र के नीचे न आ जाएँ, तब तक चक्रवर्ती का साम्राज्य पूरा न होगा। यह सोचकर मरत ने अन्य भाइयों के पास, खासकर बाहुबली के पास भी दूत भेजा । बाहुबली प्रचण्ड बल के धनी और अभिमानी थे। उन्होंने भरत की अधीनता स्वीकार करने से साफ इन्कार कर दिया । परिणाम यह हुआ कि भरत और बाहुबली की विशाल सेनाएँ मैदान में आ डटीं । जब दोनों ओर की सेनाएँ जूझने को तैयार थीं, सिर्फ शंख फूंकने भर की देर थी कि बाहुबली के चित्त में करुणा की एक मधुर लहर पैदा हुई। वैसे तो इस प्रसंग पर इन्द्र के आने की बात सुनी जाती है। बहुत-सी लड़ाइयों में इन्द्र को बुलाने के प्रसंग भी मिलते हैं। किन्तु इतिहास के मूल में यह बात नहीं है । कोई कारण नहीं कि लड़ाई से होने वाली हिंसा की कल्पना करके. इन्द्र का अन्त:करण तो करुणा से परिपूर्ण हो जाए और बाहुबली सरीखे अपने जीवन की भीतरी तह में विरक्ति-भाव, अनासक्ति-भाव और करुणा-भाव धारण करने वाले के चित्त में इन्द्र के बराबर भी करुणा न हो। आचार्य जिनदास महत्तर ने आवश्यक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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