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अहिंसा को त्रिपुटी
अज्ञान है, फिर भी मनुष्य आग्रहपूर्वक काम करता या करवाता है और यथाप्रसंग ब्रेक नहीं लगाता है, तो अधिक पापार्जन करता है ।
__जब शरीर पर नहीं, तो वचन पर ब्रेक कैसे रह सकता है ? अस्तु, अविवेकी मनुष्य इस प्रकार काम करता है, जिससे ज्यादा हिंसा होती है और फिर उसकी प्रतिक्रिया पूरे वातावरण को अशुद्ध बना देती है। जहाँ अविवेक है, वहाँ करने में भी ज्यादा पाप है और कराने में भी ज्यादा पाप है। इसके विपरीत जहाँ विवेक है, वहाँ स्वयं करने में भी और दूसरों से कराने में भी पाप कम होता है ।
एक बहिन जो विवेकवती है, यदि वह स्वयं काम करती है, तो समय पड़ने पर जीवों को बचा लेगी, चीजों का अपव्यय नहीं करेगी और चौके की मर्यादा को अहिंसा की दृष्टि से निभा सकेगी। सेठानी और हमारी बी०ए० तथा एम०ए० पास बहिनें स्वयं काम न करके यदि एक अनजान नौकरानी को काम सौंप दें, जिसे कुछ पता नहीं कि विवेक क्या है ? वह रोटियाँ सेक कर आपके सामने डाल देती है, पर, उसमें चौके की अहिंसा-सम्बन्धी मर्यादा की बुद्धि नहीं है। अहिंसा की संस्कृति के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट विचारधारा उसे नहीं मिली। इस स्थिति में यदि वह भोजन बनाने के काम पर बिठा दी गई है तो समझिए कि कराने में ही पाप ज्यादा होगा। यदि कोई बहिन स्वयं विवेक के साथ कार्य करेगी, कदम-कदम पर अहिंसा का विवेक ले कर चलेगी और उसके अन्तर में दया एवं करुणा की लहर उबुद्ध होगी, तो उसे ख्याल होगा कि खाने वाले क्या खाते हैं और वह उनके स्वास्थ्य के अनुकूल है या प्रतिकूल ? किन्तु उसने आलस्यवश स्वयं कार्य न करके विकेकशून्य नौकरानी के गले मढ़ दिया तो वह कब देखने लगी कि पानी छना है या नहीं, आटा देखा गया है या नहीं, कीड़े-मकोड़े पड़े हैं या नहीं? इस तरह वह चौके को संहार-गृह का रूप दे देती है। किसी तरह रोटियाँ तो तैयार हो जाती हैं और आपके सामने रख दी जाती हैं। यहाँ कराने में भी ज्यादा पाप होता है ।।
___ इस प्रकार सत्य का महान् सिद्धान्त आपके सामने आ गया है। इसके विरुद्ध और कोई बात नहीं कही जा सकती, और यह सिद्धान्त जैसे गृहस्थों पर लागू होता है, उसी प्रकार साधुओं पर भी। कल्पना कीजिए—किन्हीं गुरुजी के पास एक शिष्य है । गुरुजी को गोचरी-सम्बन्धी नियम-उपनियम, विधि-विधान, सबका परिज्ञान है और शिष्य को भिक्षा-सम्बन्धी दोषों का ज्ञान नहीं है। नियमों और विधानों को भी वह अभी तक नहीं सीख-समझ पाया है। वह गोचरी का अर्थ केवल माल इकट्ठा करना ही जानता है । ऐसी स्थिति में यह समझना कठिन नहीं है कि गुरुजी यदि स्वयं गोचरी करने जाते तो विवेक का अधिक ध्यान रख सकते थे। पर वे स्वयं गोचरी करने नहीं गये और विवेकहीन शिष्य को भेज दिया । उसे पता नहीं कि किसे, कितनी
और किस चीज की आवश्यकता है ? वह जिस घर से भिक्षा ले रहा है, वहाँ बूढ़ों और बच्चों के लिए पीछे कुछ बचा है या नहीं ? उसे प्राणियों की हिंसा का भी कोई विशेष
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