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अहिंसा -दर्शन
बहन आ रही है तो भारतीय संस्कृति का तकाजा है कि पुरुष को बच कर एक ओर खड़ा हो जाना चाहिए और उस बहन को सीधी राह से चलने देना चाहिए । यदि कोई वृद्ध आ रहा है, तो नौजवान को अलग किनारे खड़ा हो जाना चाहिए और वृद्ध को इधर-उधर नहीं होने देना चाहिए। उसकी वृद्धावस्था का ख्याल रखकर उसे सुविधा के साथ चलने देना चाहिए। यदि कोई राजा आ रहा है तो प्रजा का कर्त्तव्य है कि वह राजा को रास्ता दे और किनारे खड़ी हो जाए। पहले राजा थे, अब इस जमाने में नेता या संरक्षक होते हैं । न मालूम वे कहाँ और किस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए जा रहे हैं । उनके रास्ते में रोड़ा क्यों अटकाया जाए ? यदि सामने से साधु-संत आ रहे हों, तो राजा को भी रास्ता बचा कर सामान्य प्रजानन की भाँति किनारे खड़ा हो जाना चाहिए और साधु को सीधा चलने देना चाहिए ।
अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि साधु को भी कहीं रुकना चाहिए या नहीं ? सभ्यता और संस्कृति की आत्मा अपने आप ही बोल उठती है कि साधु चल रहा है और सामने से कोई मजदूर वजन लादे आ रहा है, तो साधु को भी रास्ता छोड़कर किनारे खड़ा हो जाना चाहिए। जो मजदूर भार लेकर चल रहा है और एक-एक कदम बोझ से लदा चला आ रहा है, बोझ से हाँफता और पसीने से लथपथ हुआ चल रहा है, तो उसे हटने के लिए कभी नहीं कहना चाहिए। चाहे कोई राजा हो या साधुसंत हो, उस मजदूर के लिए सबको हटना चाहिए |
यह सब क्या है ? यही कि चलने के साथ जरूरत पड़ने पर 'ब्रेक' लगाना है । इसी प्रकार आवश्यकता होने पर अपने जीवन को रोक भी लेना चाहिए । यह नहीं कि गाड़ी छूट गई तो बस छूट ही गई । वह कहीं भी टकराये, किन्तु हम तनिक भी इधरउधर न होंगे ! नहीं, साधक को बच कर चलना चाहिए। आशय यह है कि जीवन की जो भी गतियाँ हैं, उनमें खाना, पीना, पहनना आदि सभी कुछ सम्मिलित हैं । उन सब में प्रवृत्ति भी करनी है और निवृत्ति भी । प्रवृत्ति करते समय वातावरण, समय, व्यक्ति और स्थान आदि का यथोचित ध्यान रखना आवश्यक है । जीवन की गति को विवेकपूर्वक रोक कर भी रखना है और आगे भी बढ़ाना है ।
इतनी भूमिका के बाद इस प्रश्न का उत्तर सरल हो जाता है कि करने में ज्यादा पाप है, या कराने में, अथवा अनुमोदन में ज्यादा पाप है ? पहले ही कहा जा चुका है कि जैन धर्म अनेकांतवादी धर्म है । इसी दृष्टिकोण से यहाँ भी वास्तविकता का पता लगाया जा सकता है ।
करने की अपेक्षा करवाने में अधिक हिंसा: अविवेक के कारण
जो साधक स्वयं दक्षता - पूर्वक काम कर सकता है किन्तु वह स्वयं न करके किसी ऐसे व्यक्ति से, जिसकी भूमिका उस काम के योग्य नहीं है, जो उस काम को विवेक के साथ नहीं कर सकता है, यदि आग्रहपूर्वक करवाता है तो ऐसी स्थिति में करने की अपेक्षा करवाने में ज्यादा पाप होता है ।
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