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अहिंसा की त्रिपुटी
विकल्पों का प्रवाह भी तीव्रता धारण कर लेता है । जैसे ढलाव में बढ़ने वाले पानी का प्रवाह अनियंत्रित हो जाता है, उसी प्रकार जीवन की भूमिका जब नीची होती है तो विचारों का प्रवाह भी अनियंत्रित रहता है। इसके विरुद्ध जब साधक की भूमिका ऊँची होती है और राग-द्वेष मन्द होते हैं, तब साधक प्रत्येक कार्य मन्दभाव या अनासक्तभाव से करता है और उसमें यथासम्भव तटस्थबुद्धि भी रखता है | विवेक -विचार से काम लेता है और उसका हर कदम नियन्त्रण के साथ बढ़ता है। इस तरह वह चलता भी है और रुकता भी है ।
जीवन - गाड़ी के दो गुण: प्रवृत्ति और निवृत्ति
जीवन की गाड़ी में दोनों प्रकार के गुण होने चाहिए - आवश्यकता होने पर वह चल सके और आवश्यकता होने पर यथावसर रोकी भी जा सके । यदि वह मोटर है, तो उसमें चलने का, और समय पड़ने पर ब्रेक लगाते ही रुकने का गुण भी होना चाहिए । जीवन की गाड़ी को भी जहाँ साधक ठीक समझता है, वहाँ चलाता है और यथावसर रोक भी लेता है । वह अपने मन, वचन और शरीर से काम लेता है और जब चाहता है, तब उनकी गति को रोक भी सकता है । वह हरकत तो करेगा ही, जीवन को मांस का पिण्ड बना कर नहीं रखेगा । यदि रखेगा भी तो कहाँ तक ? आखिर जीवन तो जीवन है, और वह भी मानव का जीवन । अस्तु, जीवन को जीवन के वास्तविक रूप में ही व्यतीत करना है ; जड़रूप में निष्क्रिय नहीं बनाना है । जगत् में जीवन तो जीवन के ही रूप में रहेगा, जड़ के रूप में नहीं रह सकता । उसमें स्पन्दन का होना अनिवार्य । यदि हठात् शरीर और वचन पर ताला डाल भी दिया जाए, तो मन का क्या होगा ? वह तो अपने चंचल स्वभाव के कारण उछल-कूद मचाता ही रहेगा । वह हजारों प्रकार के बनाव और बिगाड़ करता रहता है । मन राजा है । भला, उस पर सहसा ताला किस प्रकार लगाया जा सकता है ? जीवन है तो ये सब हरकतें भी रहेंगी ही । किन्तु साधक में इतना सामर्थ्य आना चाहिए कि उसके जीवन की गाड़ी जब कभी गलत रास्ते पर जाने लगे, तब वह उसे रोक दे और यथाशीघ्र सही रास्ते पर ले आए ।
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एक साधक स्वयं काम करता है । यदि उसमें विवेक है, विचार है और चिंतन है, तो वह यथावसर चलता भी है और इधर-उधर के पाप प्रवाह को कम भी करता है । यदि चलते समय कोई कीड़ा मार्ग में आ गया, बालक आ गया या बूढ़ा आ गया तो उन्हें अवश्य बचा देता है । क्योंकि उसे चलना है, पर विवेक के साथ |
भारतीय संस्कृति की परम्परा में चलने के लिए भी नियम हैं । यदि सामने से बालक आ रहा है और रास्ता तंग है, तो वयस्क पुरुष या स्त्री को किनारे पर खड़ा हो जाना चाहिए और उस बालक को पूरी सुविधा देनी चाहिए । उसका सम्मान करना चाहिए। बालक दुर्बल है और उसे इधर-उधर भटकाना उचित नहीं, क्योंकि वह गड़बड़ में पड़ जाएगा। इसलिए उसे सीधे नाक की राह जाने दो । यदि कोई
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