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अहिंसा दर्शन
होती है, किन्तु वह शरीर के माध्यम से ही होती है । शरीर में ही मन और वचन की धारा भी बहती है । ये तीनों 'योग' कहलाते हैं ।
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लगाया जा वचन को
सकता है ? असद्भाषण सकता है ।
अब प्रश्न यह है कि किस प्रकार हिंसा पर प्रतिबन्ध इसके लिए स्थूल शरीर को पाप करने से रोका जा सकता है, से रोका जा सकता है और मन को भी अशुभ संकल्पों से हटा लिया जा हैं, एक प्रकार से शरीर पर नियन्त्रण रखने से शरीर के द्वारा होने वाले पाप रुक जाते वचन पर अधिकार रखने से वचन द्वारा होने वाले पाप रुक जाते हैं, और मन पर अंकुश लगा देने से मानसिक पाप रुक जाते हैं ।
मन, वचन और शरीर — ये तीन हिंसा और अहिंसा की आधारभूमिकाएँ हैं; और आगे चल कर इन तीनों के भी तीन-तीन भेद हो जाते हैं । मन से स्वयं हिंसा करना, दूसरे से करवाना और हिंसा करने वाले के कार्य का अनुमोदन समर्थन करना । इसी प्रकार वचन और शरीर के साथ भी ये तीनों विकल्प चलते हैं ।
जैन श्रावक (गृहस्थ ) दो करण तथा तीन योग से हिंसा का परित्याग करता है । अर्थात् वह न तो मन, वाणी और शरीर के द्वारा हिंसा करता है और न मन, वाणी और शरीर द्वारा अन्य किसी से हिंसा करवाता ही है। गृहस्थ को अनुमोदन की छूट है । एक आदमी स्वयं काम करता है और उससे पापबन्ध होता है । दूसरा स्वयं करता नहीं, अपितु दूसरों से करवाता है और उससे पाप-बन्ध होता है । तीसरा स्वयं करता भी नहीं करवाता भी नहीं, सिर्फ करने वाले का अनुमोदन या सराहना करता है और उसमें भी पाप-बन्ध होता है । अत: प्रश्न यह है कि इन तीनों में से किस स्थिति में पाप ज्यादा होता है ? अर्थात् तीनों विकल्पों से आने वाला पाप समान है या न्यूनाधिक ?
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हिंसा किसमें ज्यादा किसमें कम ?
जैनधर्म अनेकांतवादी धर्म है, एकांतवादी नहीं । वह प्रत्येक सिद्धांत को विभिन्न कोण से देखता है । ऐसी स्थिति में धर्म, पुण्य या पाप का निर्णय देते समय वह एकपक्षीय निर्णय कैसे दे सकता है ? अस्तु, जैनधर्म इस प्रश्न का निर्णायक उत्तर विचारों की विभिन्नरूपता पर ही छोड़ देता है । अतएव विचारों का जो प्रवाह आता है, वह भी विभिन्न रूपों में प्रकट होता है; अर्थात् - एक व्यक्ति को किसी रूप में और दूसरे को दूसरे रूप में प्रकट होता है । उसकी गति कहीं तीव्र होती है, तो कहीं मन्द ।
बतक उसकी भूमिका नीची रहती है और राग-द्वेष का आधिक्य होता है, तब तक विकल्पात्मक विचारों के प्रवाह में भी तीव्रता होती है । जैसे पृथ्वी का ढलाव पा कर पानी का प्रवाह तेज हो जाता है, उसी प्रकार जीवन की नीची भूमिका में संकल्प और
१ गृहस्थ को संकल्पपूर्वक निरपराध प्राणियों की स्थूल हिंसा का परित्याग करना होता है ।
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