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अहिंसा की त्रिपुटी
प्रश्न उठता है, यदि शरीर कर्म को नहीं बाँधता है, तो क्या उसे आत्मा TET है ? और यह जो शुभ या अशुभ जीवन धारा बह रही है, वह शरीर में नहीं तो क्या आत्मा में बह रही है ? यदि आत्मा ही शुभ और अशुभ कर्मों का संचय कर रहा है - ऐसा मान लिया जाए तो जैन-धर्म की मर्यादा स्पष्ट नहीं होती । यदि आत्मा स्वयं, बिना शरीर के कर्म-बंध कर सकता है तो मुक्ति की दशा में भी कर्म-बंध होना चाहिए | वस्तुतः मोक्ष में क्या है ? वहाँ एकमात्र सिद्धत्वरूप है, ईश्वरीय रूप है। और परम विशुद्ध परमात्म-दशा है। वहाँ शरीर नहीं रहता, केवल आत्मा ही रहता है । यदि आत्मा ही कर्म-बंध का कारण है तो सिद्धों को भी कर्म-बंध होना चाहिए । वहाँ भी शुभ और अशुभ कर्म होने चाहिए । किन्तु ऐसा होता नहीं है । वहाँ आत्मा कर्म-बंध से अतीत, विशुद्ध ही रहती है । अतएव स्पष्ट है कि अकेला आत्मा भी कर्मों का बंध नहीं करता ।
अस्तु, यह स्पष्ट है कि कर्म-बन्ध आत्मा और शरीर के संयोग से होता है । जब तक ये दोनों मिले रहते हैं, तब तक संसारी दशा में कर्म-बन्ध होता रहता है । परन्तु जब ये दोनों अलग-अलग हो जाते हैं, न केवल स्थूल शरीर ही; अपितु सूक्ष्मशरीर भी आत्मा से अलग हो जाता है, तो इस अवस्था में कर्म - बन्ध का सर्वथा अन्त हो जाता है। इस प्रकार आत्मा और शरीर के संयोग पर ही कर्म-बन्ध आधारित है ।
कल्पना करें - भंग है, और वह अधिक से अधिक तेज घोट कर रखी गई है ।
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अब प्रश्न यह है कि उसका जो नशा है, और नशे के प्रभाव से जो पागलपन होता है, वह भंग में है या पीने वाले में यदि पीने वाले में है तो भंग पीने से पहले भी उसमें उन्माद और दीवानापन होना चाहिए था । किन्तु ऐसा तो है नहीं । भंग पीने से पहले पीने वाले में पागलपन नहीं होता । यदि पीने वाले में और उसकी आत्मा में नशा नहीं है, मादकता भी नहीं है - तो क्या भंग में ही है ? यदि भंग में ही है तो भंग जब घोटछान कर गिलास में रखी हो, तब उसमें भी दीवानापन आना चाहिए । किन्तु देखते हैं, वहाँ कुछ नहीं है । वहाँ वह शांतरूप में, लोटे या गिलास में पड़ी रहती है । परन्तु जब पीने वाले का संग होता है, तब जा कर नशा चढ़ता है, उन्माद और पागलपन भी आता है। तात्पर्य यह हुआ कि अकेली भंग और अकेली आत्मा में नशा नहीं है, बल्कि जब दोनों का संग होता है तभी मादकता पैदा होती है । इसलिए न अकेले शरीर पर दोषारोपण किया जा सकता है और न अकेली आत्मा को ही अपराधी समझा जा सकता है । जब आत्मा निस्संग हो जाती है और विशुद्ध बन जाती है, तब उसमें कोई हरकत या स्पन्दन नहीं रह जाता। इसी को योग निरोध कहते हैं । जब तक आत्मा और शरीर का ऐहिक संसर्ग है, तब तक योग है, और जब तक योग है, तभी तक कर्म-बन्ध है ।
हिंसा के द्वार : योग और करण
इस प्रकार जैनधर्म का दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा के द्वारा हिंसा
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