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अहिंसा की त्रिपुटी
धर्म के जितने भी मार्ग हैं, एक तरह से सभी अहिंसा के ही मार्ग हैं। धर्म के विभिन्न रूप भी अहिंसा के ही पृथक-पृथक रूप हैं। आचरण-सम्बन्धी जितने भी विधि-विधान हैं, उन सबमें अहिंसा उसी प्रकार व्याप्त है, जैसे समुद्र की प्रत्येक लहर में जल । क्या सत्य, क्या अस्तेय, क्या ब्रह्मचर्य और क्या अपरिग्रह, सबके साथ ही अहिंसा चलती है। जीवन की किसी भी ऊंची भूमिका में, ऐसा नहीं है कि अहिंसा छूट जाए। यह कभी संभव नहीं होगा कि अहिंसा बिछुड़ जाए और सत्य चलने लगे, या अपरिग्रह उसे छोड़ कर आगे चल पड़े। अहिंसा-वीणा की मधुर झंकार सर्वत्र सुनाई देती है। इस प्रकार अहिंसा का स्वरूप विराट् है और उसी के सहारे धर्मों के समस्त नियम और उपनियम टिके हुए हैं।
अब देखना यह है कि जिस अहिंसा अथवा हिंसा को व्यक्ति अपने जीवन के अन्दर ले कर चलता है, तब वह कहाँ-कहाँ और किस-किस रूप में रहती है ? जब यह बात भली-भाँति समझ में आ जाएगी तो हमारे सामने अहिंसा का शुद्ध रूप भी स्वत: उपस्थित हो जाएगा। शरीर और आत्मा
एक ओर शरीर है, तो दूसरी ओर आत्मा। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जो कर्म-बंध होते हैं, वे शरीर के द्वारा होते हैं या आत्मा के द्वारा ? उत्तर है-जीवन में एक प्रकार की जो चंचलता और हलचल-सी रहती है, जिसे शास्त्र की परिभाषा में योग कहते हैं, उसी के द्वारा कर्मों का बंध होता है। यह हलचल न तो अकेले शरीर में होती है, और न अकेली आत्मा में; बल्कि एक-दूसरे के प्रगाढ़ सम्बन्ध के कारण दोनों में समानरूप से होती है। गहराई से विचार करने पर यह मालूम हो जायगा कि न केवल शरीर के द्वारा बंधन हो सकता है और न केवल आत्मा के द्वारा । यदि केवल शरीर के द्वारा ही बंधन होता, तो जब आत्मा नहीं रहती है और शरीर मुर्दा हो जाता है, तब भी कर्म-बन्धन होना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं होता। अत: ऐसा जा सकता है कि यह शरीर जड़ वस्तु है। यह अपने आप में कुछ नही है; यह तो मिट्टी का ढेला है, जो अपने आप कुछ भी करने वाला नहीं है। जब तक आत्मा की किरण नहीं पड़ती और आत्मा का स्पन्दन नहीं होता, तब तक शरीर कोई क्रिया नहीं कर सकता। यदि वह अपने आप कुछ कर पाता तो आत्मा के निकल जाने पर भी कर्म-बंध अवश्य होता ।
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