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अहिंसा का मान-दण्ड
अहिंसा और हिंसा का प्रधान केन्द्र तो व्यक्ति की भावना ही है । अतएव उसे ही आत्मा की कसौटी पर कसकर देखना होगा । जो इस प्रकार देखेंगे, वे हस्तीतापसों के युग में विचरण करने नहीं जाएंगे। जीव-गणना के द्वारा हिंसा एवं अहिंसा को आंकना, यह जैनधर्म की अपनी कसौटी नहीं है, प्रत्युत भगवान् महावीर ने तो इसका प्रबल विरोध किया है। परन्तु दुर्भाग्य से यह भ्रान्ति हमारे अन्दर समाविष्ट हो गई है, अतः आज के विचारशील जैनों को उक्त भ्रान्ति के सम्बन्ध में अपना मत संसार के समक्ष स्पष्ट कर देना आवश्यक है। यह एक महत्त्वपूर्ण चर्चा है, और दया-दान-सम्बन्धी समस्त नये-पुराने वाद-विवाद इसी में निहित हैं। अहिंसा को समझने के लिए हिंस्य जीवों के शरीर, इन्द्रिय, चेतना आदि के विकास के तारतम्य एवं हिंसक के मनोभावों की तीव्रता-मन्दता को समझना होगा।
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