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________________ अहिंसा-दर्शन पड़ता है। वे करुणार्द्र हो कर कहते हैं—“एक तरफ तो आनन्द-मंगल हो रहा है, मांगलिक बाजे बज रहे हैं और दूसरी तरफ इन मूक पशुओं की गर्दनों पर छुरियाँ चलाने की तैयारी हो रही है।" बस यह विचार उत्पन्न होते ही उन्होंने सारथी से कहा-'इन पशुओं को बाड़े से बाहर निकाल दो।' जब सारथी ने पशुओं को निकाल दिया तो भगवान् प्रसन्न हो कर सारथी को अपने अमूल्य आभूषण इनाम में दे देते हैं और साथ ही विवाह न करने का दृढ़ संकल्प कर साधना के महापथ पर चल पड़ते हैं। ___ यादवजाति मानो जाग उठी । कदाचित् इससे पूर्व अहिंसा के विषय में उसकी कोई विशेष स्पष्ट धारणा नहीं थी। इस उदाहरण से उसे एक नया सबक मिल गया । उसे ध्यान आया कि विवाह के समय हम जो बड़ी-बड़ी हिंसाएँ करते हैं और मूक पशुओं की गर्दनों पर छुरी चलाते हैं, यह कितना बड़ा अनर्थ है ! कितनी बड़ी अमानुषिकता है ! भगवान् नेमिनाथ ने विवाह का परित्याग करके जो उच्च आदर्श समाज के सामने उपस्थित किया, उसका वर्णन भगवान् महावीर ने भी किया है । भगवान् नेमिनाथ ने स्नान करते समय, जलकाय के असंख्य एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा जानते हुए भी विवाह का त्याग नहीं किया; किन्तु बाड़े में बंद किए हुए कुछ गिनती के पंचेन्द्रिय प्राणियों को देख कर और दया से द्रवित हो कर उन्होंने विवाह करना अस्वीकार कर दिया। इससे क्या निष्कर्ष निकलता है ? यदि भगवान् एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा को समान समझते तो स्नान करते समय ही उसका विरोध कर देते और उसी समय विवाह करना अस्वीकार कर देते, क्योंकि वहां असंख्य जल-जीवों की हिंसा हो रही थी । यदि उस समय विबाह का त्याग नहीं किया तो फिर जल के जीवों की अपेक्षा बहुत थोड़े पंचेन्द्रिय पशु-पक्षियों की हिंसा से द्रवित हो कर भी विवाह का त्याग न करते । परन्तु संख्या में थोड़े-से पंचेन्द्रिय जीवों को मारने के लिये नियत देख कर उनके हृदय में करुणा का स्रोत बह उठा । इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा समान नहीं है । एक गृहस्थ वनस्पति पर चाकू चलाता है और दूसरा किसी मनुष्य या पशु की गर्दन पर छुरी चलाता है तो क्या दोनों समान पाप के भागी हैं ? क्या दोनों की हिंसा समान कोटि की है ? जो लोग एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा को समान ही मानते हैं, क्या वे गृहस्थ एकेन्द्रिय के समान पंचेन्द्रिय का भी वध करते हैं ? यदि वे स्वयं ऐसा नहीं करते तो दुनिया को चक्कर में डालने के लिये एकान्तरूप से सर्वविध हिंसा की समानता का प्रतिपादन क्यों करते हैं ? १ देखिए-उत्तराध्ययन सूत्र २२।१८-१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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